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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।। एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : २६ : माता का स्वर्गवास माता-पुत्र का सम्बन्ध बड़ा अटूट होता है। हजारों कोस दूर रहने पर भी यह स्नेह का बन्धन नहीं टूटता । त्रयोदशी की रात्रि को आपश्री को एक स्वप्न दिखाई दिया। आपने देखामहासती केसरकवरजी महाराज आपश्री के सम्मुख प्रत्यक्ष खड़ी हैं। वे कह रही हैं-तुम्हारे दर्शनों की इच्छा अपूर्ण रह गई । शरीर वेदना के अन्तिम समय में मैंने चौविहार संथारा ले लिया है । प्रातः तक मेरा यह नश्वर शरीर छूट जायगा। मेरी भावना है कि तुम जिनशासन की महती प्रभावना करो। शरीर छोड़कर मैं तुमसे दूर नहीं हूँ। धर्म-प्रभावना में मेरा उचित सहयोग तुम्हें मिलेगा।" बस उनकी आंखें खुल गई। वे कुछ पूछ भी न सके। स्वप्न का दृश्य खुली आँखों के सामने भी नाचने लगा। सोचने लगे--यह स्वप्न है, या सत्य का संकेत ? क्या ऐसा हो गया ? शेष रात्रि वे सो न सके । प्रातःकाल ही रतलाम से सूचना मिली कि 'महासती केसरकुंवरजी महाराज ने संथारा ग्रहण कर लिया है।' समाचार पाते ही आपने शीघ्र विहार किया। कलारिया पहुंचे। वहाँ समाचार मिला'चतुर्दशी की सुबह महासतीजी महाराज का स्वर्गवास हो गया है।' चित्त में खेद हुआ । स्वप्न सत्य हो गया। भावना उमड़ी-'मैं अपनी वीरमाता, दीक्षा में परम सहकारिणी, उपकारिणी माता को अन्तिम समय दर्शन भी न दे सका । उनकी अन्तिम इच्छा भी पूरी न कर सका । त्याग-प्रत्याख्यान में सहायक भी न हुआ।' तुरन्त भावना बदली'खेद से कर्मबन्धन की शृखला बढ़ती है । होनी के अनुसार ही निमित्त मिलते हैं। कौन किसकी माता, कौन किसका पुत्र ? जीव अकेला आता है और आयु पूर्ण होने पर अकेला ही चला जाता है। जन्म-मरण का नाम ही तो संसार है। इसमें दुःख कैसा और आश्चर्य क्या ?' और आपने चित्त के खेद तथा मोह-बन्धन को झटक दिया। कलारिया से आप वापिस लौट रहे थे तभी जावरा का श्रावक संघ आपको अत्यधिक आग्रह करके जावरा ले गया। वहाँ मालूम हुआ कि एक-दो दिन तो महासतीजी महाराज ने आपकी याद की और फिर अन्तिम समय उन्होंने मोह तोड़ दिया। उनके अन्तिम शब्द थे---- 'कौन किसका पुत्र, कौन किसकी माता । ये सब सांसारिक बन्धन झूठे हैं । मोह का पसारा है। मैं साध्वी होकर किस मोह-ममता में फंस गई ? मेरा तो एकमात्र लक्ष्य आत्मकल्याण है।' यह जानकर आपने भी सन्तोष धारण कर लिया। माता और पत्र दोनों ही धन्य थे। माता ने अपने पत्र को भी आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर किया और स्वयं भी अपनी आत्मा का कल्याण किया और पुत्र सदा ही माता के उपकारों के प्रति कृतज्ञ तथा विनम्र बना रहा। तदनन्तर आप रतलाम पधारे। वहाँ चातुर्मास किया। इस चातुर्मास में बम्बई से जैन समाज के सुप्रसिद्ध तत्त्व-चिन्तक और क्रांतिकारी विचारों के अग्रणी वाडीलाल मोतीलाल शाह आपके दर्शनार्थ आये। उन्होंने कभी जीवन में उपवास नहीं किया था। किन्तु महाराजश्री के उपदेश से प्रभावित होकर स्वतः प्रेरणा से उन्होंने उपवास किया। श्रावक संघ ने भी खूब सेवाभक्ति प्रदर्शित की। किन्तु वहाँ प्लेग (महामारी) फैल गया। प्लेग का उपद्रव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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