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________________ : ५१३ : कर्म : बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रियाएँ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ रूप पुद्गलों से सर्वथा भिन्न हूँ, इतने मात्र से वह बन्धन से मुक्त हो नहीं जाएगा । जैसे व्यक्ति ने भ्रान्तिवश सीप को रजत समझ कर एकत्रित कर लिया। उसे जब यह बोध हो गया कि यह रजत नहीं, सीप है, तो उसकी भ्रान्ति दूर हो गई। हम यह कह सकते हैं कि उसे ज्ञान हो गया और ज्ञान का फल यह है कि उसका भ्रम दूर हो गया । परन्तु ज्ञान होने मात्र से वह तब तक उस संग्रहीत सीप के बोझ से मुक्त नहीं हो सकता, जब तक उन्हें अपनी जेब से निकाल कर नहीं फेंक देगा । इसी प्रकार अज्ञान, अविद्या एवं मोहवश आवद्ध कर्मों का यथार्थ बोध हो जाना एक बात है और उन आबद्ध कर्मों से मुक्त होना, उनकी निर्जरा करके उनके आवरण को हटा देना दूसरी बात है । प्रथम को आगम में सम्यक्- ज्ञान कहा है, और दूसरे को सम्यक् चारित्र । सम्यक्ज्ञान या ब्रह्म-ज्ञान से साधक को यह बोध हो जाता है कि मेरा अपना स्वरूप क्या है और संसार का स्वरूप क्या है ? मैं कर्म से आबद्ध क्यों हूँ ? आवरण से आवृत होने का कारण क्या है ? और उससे अनावृत होने का मार्ग क्या है ? ज्ञान से मार्ग का बोध हो जाता है, परन्तु लक्ष्य की प्राप्ति होगी, उस मार्ग पर गति करने से । गति एक क्रिया है, इसे आगम में चारित्र एवं आचार कहा है । बन्धन से मुक्त होने के लिए मात्र ज्ञान ही नहीं, ज्ञान के साथ चारित्र का क्रिया का आचार का होना भी आवश्यक है । न केवल क्रिया से आत्मा बन्धन से मुक्त हो सकता है, और न मात्र ज्ञान से । इसलिए जैन दर्शन अत-वेदान्त की इस बात को तो मानता है, कि संसार में आबद्ध रहने का कारण अविद्या ( अज्ञान) है, परन्तु इसे स्वीकार नहीं करता कि उससे मुक्त होने के लिए ज्ञान का होना ही पर्याप्त है, कर्म ( चारित्र) की क्रिया की कोई आवश्यकता नहीं है। 1 जैन-दर्शन में बन्ध और मोक्ष -- सात या नव तत्त्व में दो तत्त्व ही मुख्य हैं— जीव - अजीव, जड़-चेतन, आत्मा-पुद्गल, पुरुषप्रकृति या ब्रह्म- माया । स्थानांग सूत्र में दो द्रव्य कहे हैं - 'जीव दव्या चेव अजीव दव्वा' अथवा जीव और अजीव द्रव्य । अजीव द्रव्य के पाँच भेद किए गए हैं-धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश द्रव्य, कालद्रव्य और पुद्गल द्रव्य भले ही जीव और अजीव कह दें या आत्मा और पुद्गल इन दो की प्रमुखता है, सृष्टि की रचना में। आत्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध संसार है और इस संयोग से मुक्त उन्मुक्त हो जाना मोक्ष है । जब आत्मा स्व-भाव को छोड़कर विभाव में परिणमन करता है, राग-द्वेष के प्रवाह में प्रवहमान रहता है, कषायों के रंग से अनुरंजित रहता है, तब वह कर्म से आबद्ध होता है, और कर्म से आबद्ध होने के कारण ही संसार में परिभ्रमण करता है । जब आत्मा को स्वरूप का बोध हो जाता है और भेद-विज्ञान द्वारा परिज्ञात स्व-स्वरूप में स्थित होता है, तब वह नये कर्म का बन्ध नहीं करता, प्रत्युत आवद्ध कर्मों की निर्जरा करता है, उनसे मुक्त होता है। राग-भाव से हटकर वीतराग भाव में आना कर्म-बन्धन से मुक्त होना है । बन्धन कब से ? भारत के सभी आस्तिक दर्शन इस बात को मानते हैं कि आत्मा की आदि नहीं है, वह अनादि है और सांख्य, योग, न्याय-वैशेषिक, अद्वैत वेदान्त सभी आस्तिक दर्शन इस तथ्य को भी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि संसार से मुक्त होने के बाद आत्मा पुनः संसार में जन्म नहीं लेता । पुनर्जन्म-मरण बद्ध आत्मा का होता है, मुक्त का नहीं। संसार परिभ्रमण का कारण पुरुषप्रकृति के संयोग को मानें या ब्रह्म और माया के संयोग को, वह ठीक जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार अनादि काल से है । आचार्य शंकर की मान्यता के अनुसार, 'अविद्या एवं भ्रम का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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