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________________ अन्य एवं कृषि की स्किार । श्री जैन दिवाकर-स्कृति-अन्य ) :५११: कर्म : बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रियाएँ निर्जरा करता है। इसलिए वह स्वयं कर्म का कर्ता भी है, भोक्ता भी है और स्वयं ही उनसे मुक्त भी होता है। जीव : कर्म का कर्ता-मोक्ता भी है सांख्य और जैन-दर्शन में अन्तर यही है कि वह सांख्य की तरह इस बात को नहीं मानता कि कर्म की कर्ता प्रकृति है । प्रकृति ही कर्म का बन्ध करती है, और वही उससे मुक्त होती है । प्रकृति जड़ है, जब उसमें चेतना है ही नहीं, तब उसमें बन्ध के परिणाम आ कैसे सकते हैं ? पुरुष (आत्मा) के परिणामों के बिना बन्ध होगा कैसे ? भले ही वे परिणाम अशुद्ध हों, वैभाविक हों, रागद्वषात्मक हों, होंगे पुरुष के ही, आत्मा के ही, जीव के ही। जड़ भावशून्य है, परिणामों से रहित है। इसलिए जैन-दर्शन एवं जैन-आगम-वाङमय इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता कि बन्ध का कर्ता प्रकृति है और वही उससे मुक्त होती है। पुरुष प्रकृति को अपना समझता है, इसलिए वह प्रकृति द्वारा कृत कर्म का फल भोगता है, संसार में परिभ्रमण करता है। यह कैसे संभव हो सकता है कि कर्म करे प्रकृति और उसका फल भोगना पड़े पुरुष को ? इसलिए श्रमण भगवान महावीर ने भगवती सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा कि आत्मा अपने कृतकर्म के फल को ही भोगता है, पर-कृत कर्म के फल को नहीं । इसलिए वह केवल भोक्ता ही नहीं, कर्म का कर्ता भी है और अपने द्वारा आबद्ध कर्म-बन्धन से मुक्त भी वह स्वयं ही होता है । बन्ध और मुक्ति-दोनों उसके परिणामों में निहित हैं विभाव-परिणति बन्ध का कारण है, तो स्वभाव-परिणति मुक्ति का, परन्तु दोनों परिणाम (स्वभाव और विभाव) उसके अपने हैं, वे न प्रकृति के हैं, न पुद्गलों के हैं, न योगों के और न जड़ के हैं। इसलिए प्रकृति अथवा योगों में होने वाले स्पन्दन या क्रिया के द्वारा बन्ध होता है अथवा 'क्रियाएँ बन्ध' ऐसा न कहकर, यह कहा-'परिणामे बन्ध' अथवा बन्ध परिणामों से होता है। ज्ञान और क्रिया वेदान्त के व्याख्याकार, ब्रह्म-सूत्र के भाष्यकार एवं अद्वैतवाद के संस्थापक आचार्य शंकर की मान्यता है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, नानात्व से परिपूर्ण यह जगत् मिथ्या है, भ्रम है और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्म व नापरः।' अनेक पदार्थों से भरा हुआ, जो जगत प्रत्यक्ष में दिखाई देता है, वह भ्रम है, इसलिए असत्य है । जैसे रज्जू में सर्प की भ्रान्ति होती है और हम उसे सर्प समझ बैठते हैं । परन्तु जब यह भ्रान्ति दूर होती है, तब हम उसे सर्प नहीं, रज्जू (रस्सी) ही समझते हैं। आचार्य शंकर के मत से सर्प-रज्जू भ्रम की पहेली ही विश्व या जगत् पहेली का रहस्य है। इस भ्रान्ति एवं माया का नाश होने पर जगत् सत्य नहीं, मिथ्या प्रतीत होता है। माया अनादि और भावात्मक है, फिर भी ज्ञान के द्वारा समाप्त होने योग्य है । वास्तव में वह भावात्मक नहीं है, उसे भावात्मक केवल इसलिए कहते हैं कि वह अभावात्मक नहीं है। वह न भावात्मक है और न अभावात्मक, बल्कि दोनों से भिन्न एक तीसरी वस्तु है ।४ आचार्य शंकर का कहना है-'बन्धन का मूल कारण जीव का स्वयं के विषय में अज्ञान है । जीव स्वयं ब्रह्म है, परन्तु अनादि अविद्या (माया) के कारण वह इस तथ्य को भूल जाता है, और स्वयं को मन, शरीर, इन्द्रियाँ समझने लगता है। यही उसका अज्ञान है और इसी कारण वह स्वयं को बन्धन में पड़ा समझता है । जब यह दोषपूर्ण तादात्म्य समाप्त हो जाता है, तो जीव यह अनुभव ४ Studies of Vedanta, Lecture.VIL. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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