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________________ ||श्री जैन दिवाकर. म्मृति-ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५०४ : अथवा संहार के लिये किसी ईश्वर की सत्ता को मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि विद्यमान पदार्थों का नाश नहीं होता है और न ही असत् से सृष्टि का निर्माण भी सम्भव है। जन्म तथा विनाश वस्तुओं के अपने गुणों एवं पर्यायों पर निर्भर है। इस प्रकार संसार में विद्यमान जो अनेक पदार्थ एवं प्राणी हैं उन सबको जैन-दार्शनिक स्वयम्भूत एवं आधार रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रक्रिया से जैनी अनेक पदार्थों की कल्पना की स्थापना करते हैं। उनका कथन है कि पदार्थ अपने को व्यक्त कर सके इसी प्रयोजन से सृष्टि के रूप में आ जाते हैं। जीवात्माओं से युक्त समस्त विश्व मानसिक एवं भौतिक अवयवों सहित लगातार अनादिकाल से चला आ रहा है तथा इसमें किसी नित्य स्थायी देवता का हस्तक्षेप भी नहीं है और न रहा है। संसार में दृष्टगत विभिन्नतायें वस्तुतः काल, स्वभाव, नियति, कर्म एवं उद्यम इन पांच सहकारी दशाओं के कारण हैं। बीज में यद्यपि वृक्ष रूप में उदित होने की अन्तर्शक्ति विद्यमान है, फिर भी उसे वृक्ष रूप धारण करने के पूर्व काल (मौसम), प्राकृतिक वातावरण और भूमि में बोये जाने के कर्म रूप में उचित सहायता की अपेक्षा रहती ही है तभी वह वक्ष रूप धारण कर पाता है। इतना होने पर भी वक्ष का स्वरूप उसके मूलभूत बीज के स्वरूप पर ही निर्भर करता है। इसी कारण से वृक्षों में भिन्नता दिखलाई देती है। वृक्षों के ही समान जीवों में भी भिन्नता का यही कारण है। जैन दार्शनिकों ने एक असीम सत्तात्मक शक्ति के रूप में यद्यपि ईवश्र को मान्यता नहीं दी है, फिर भी उनका स्पष्ट मत है कि संसार की कुछ आत्माएं जब उचित रूप में विकसित हो जाती हैं तब वे ही दैवत्व रूप धारण कर लेते हैं-ये ही 'अर्हत्' कहलाते हैं अर्थात् सर्वोपरि प्रभु, सर्वज्ञआत्मा जिन्होंने समस्त दोषों पर विजय पा ली है। यह अवश्य है कि उनमें कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है कि फिर भी जब जीवात्मा अपनी उच्चतम पूर्णता को प्राप्त कर लेती है तत्क्षण ही वह ईश्वरत्व को प्राप्त कर परमात्मा अथवा सर्वोपरि आत्मा बन जाती है। वस्तुतः प्रत्येक जीव में उच्चतम अवस्था में पहुँचने की शक्ति है, किन्तु रहती है सुप्तावस्था में। इसी प्रकार सुप्तावस्था से क्रियात्मक धरातल पर जीवात्मा को लाकर मानव अपनी उच्चतम स्थिति को प्राप्त कर ले यही जीवात्मा का परम पुरुषार्थ है। इस उच्चावस्था (ईश्वरत्व) को प्राप्त करने के लिये मानव को अपने पुरुषार्थ पर अडिग विश्वास करना होगा। यह पुरुषार्थ है क्या, इसे किस प्रकार व्यक्ति अंगीकार कर ईश्वरत्व की कोटि में आ सकता है-इसके लिये आवश्यक है पुरुषार्थ शब्द का विश्लेषित अर्थ समझना। पुरुषार्थ का साधारणतः प्रचलित अर्थ है-मानव की शक्ति, किन्तु दार्शनिक जगत् में इस शब्द का कुछ भिन्न एवं विस्तृत अर्थ है। पुरुषार्थ शब्द के दार्शनिक अर्थ का विश्लेषण करने के पूर्व आवश्यक है कि इसका व्याकरण-सम्मत अर्थ जान लें । व्याकरण की दृष्टि से 'पुरुषार्थ' दो शब्दों के संयोग से बना है-पुरुष+ अर्थ । पुरुष" शब्द की व्युत्पत्ति है पुरि देहे शेते इति पुरुष: १४ (क) पुरि देहे शेते-शी+ङ पृषोरादित्वात् वाचस्पत्यम्-पुर- कुषन् । पुरि= पृ+ इ ।-संस्कृत हिन्दी कोश-आप्टे, पृ० ६२४ (ख) वाचस्पत्यम्-पंचम भाग, पृ० ४३७६ (ग) अर्थः=ऋ+थन्-आप्टे कोश, पृ०६६ (आशय, प्रयोजन, लक्ष्य, उद्देश्य, इच्छा आदि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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