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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ नीमच पधारे । नीमच में श्री हजारीमल जी महाराज बीमार हो गये । अतः वहीं चातुर्मास किया । वहाँ श्री हुकमीचन्द जी की दीक्षा सम्पन्न हुई । : २३ : उदय : धर्म - दिवाकर का आठवाँ चातुर्मास (सं० १९६०) नाथद्वारा नीमच से विहार करके छावनी, जावद होते हुए कनेरे पधारे । मार्ग के सभी स्थानों पर जैन और जैनेतरों ने प्रवचन - पीयूष का पान किया, विविध प्रकार के त्याग प्रत्याख्यान लिए । सर्वत्र गरीब, अमीर, राज्याधिकारी, व्यापारी, मजदूर और कृषक एकत्र होते । अनेक स्थानों पर विहार करते हुए आपश्री सारोल पधारे। यह स्थान नाथद्वारा के निकट है। नाथद्वारा वैष्णवों का तीर्थ है और विष्णुपुरी कहलाता है। धावकों से पूछने पर मालूम हुआ कि वहाँ कुछ घर जैनों के भी हैं। आपश्री सारोल से विहार कर नाथद्वारा पधारे। बाजार से गुजरे तो दूकानदारों ने उठकर सभी संतों की वन्दना की । लोगों से ठहरने योग्य स्थान पूछा तो उत्तर मिला - 'द्वारकाधीश की खडग पर योग्य स्थान है।' संत गण वहाँ के कर्मचारी से स्वीकृति लेकर ठहर गए। दूसरे दिन व्याख्यान हुआ तो श्रोता जैन ही थे, स्थान भी एकान्त में था । आपने सार्वजनिक स्थल पर व्याख्यान देने की इच्छा प्रगट की। इस पर लोगों ने कहा "महाराज साहब ! सार्वजनिक स्थान- बाजार में व्याख्यान देना उचित नहीं । यह वैष्णवों का गढ़ है। यदि किसी ने टेढ़े-मेढ़े प्रश्न कर दिये तो आपश्री के साथ-साथ जिनशासन की मी अवमानना होगी ।" "गुरुदेव की कृपा से जिनशासन की प्रभावना ही होगी। आप लोग चिन्ता न करें।" महाराजश्री का आत्म-विश्वास भरा उत्तर था । उत्साहित होकर उदयपुर निवासी श्री राजमलजी ताकड़िया ने कहा “यहाँ का सार्वनजिक स्थल लीलियाकुंड है । आपश्री वहीं पधारें। मैं सब व्यवस्था कर दूंगा ।" तदनुसार लीलियाकुंड पर आपक्षी का प्रवचन हुआ। पहले दिन श्रोता कम रहे लेकिन उनकी संख्या बढ़ने लगी । तेरहवें व्याख्यान में श्रोताओं की संख्या तेरह सौ तक पहुँच गई — उनमें वैष्णव, हिन्दू सनातन धर्म के अधिकारी विद्वान् और श्रीनाथजी के भक्त आदि सभी होते थे। सभी प्रवचन- गंगा में डुबकियां लगाते। टेढ़े-मेढ़े तो क्या किसी ने कोई खास प्रश्न भी नहीं किए । प्रवचन शैली ही इतनी मधुर और रोचक थी कि विषय बिल्कुल स्पष्ट हो जाता । आपश्री किसी भी धर्म का खण्डन-मंडन नहीं करते थे। सीधी सच्ची सदाचार की बात ओजस्वी वाणी में कहते थे। परिणामस्वरूप जनता खिची चली आती थी। जिनशासन की महती प्रभावना हुई । जब आपश्री नाथद्वारा से चले तो जैनों के अतिरिक्त जैनेतरों ने भी रुकने की सभक्ति प्रार्थना की। आपने जैन साधुओं का कल्प समझाकर उन्हें संतुष्ट किया। सभी ने फिर पधारने का आग्रह किया। गंगापुर पधारे। वहाँ प्रवचन- गंगा नाथद्वारा से विहार कर आपश्री संत समुदाय सहित बहने लगी। एक बार बाजार में आपका व्याख्यान हो रहा था। का मार्ग इसीलिए बदल दिया कि आपके प्रवचन में विघ्न न पड़े और श्रोताओं को उठना न पड़े वैष्णवों ने अपने ठाकुरजी के रथ क्योंकि श्रोताओं से बाजार पूरा भरा हुआ था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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