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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || :१६ : उद्भव : एक कल्पांकुर का "मेरे पास जो आभूषण हैं। उन्हें पूनमचन्द जी को दे आऊँ। शायद वे अनुमति पत्र लिख दें।" वैरागी पुत्र को आभूषणों का क्या लोम ? उसने तुरन्त सहमति व्यक्त कर दी। माता आभूषण लेकर धम्मोत्तर गई । पूनमचन्दजी को आभूषण देकर समझाया "समधीजी ! मेरा पुत्र प्रव्रजित हुए बिना तो मानेगा नहीं । आप यह जेबर रख लीजिए । आपकी पुत्री के लिए सहारा बन जाएंगे । अब आप मुझे अनुमति-पत्र लिख दीजिए।" पूनमचन्द भी पूरे घाघ थे । आभूषण लेकर अनुमति पत्र लिख दिया। लेकिन उसमें सिर्फ केसरबाई को दीक्षा की अनुमति लिखी, चौथमलजी की नहीं। माता इस चाल से अनजान थी। उसने समझा-बुझाकर बहूरानी से अनुमति पत्र लिखा लिया। बहू ने माता-पुत्र दोनों को दीक्षित होने की स्वीकृति प्रदान कर दी। विघ्न पर विघ्न पिता-पुत्री के अनुमति पत्र लेकर माता मन्दसौर आई। चौथमलजी हर्षित हुए। लेकिन जब पूनमचन्दजी का अनुमति-पत्र पढ़ा गया तो उनका कपट खुला। माता केसरबाई ने कहा “बहूरानी की अनुमति मिल ही गई है। ससुर की अनुमति न मिली, न सही । मैं माँ हूँ। मैं आज्ञा देती हूं।" गुरुदेव आशुकवि पं० श्री हीरालालजी महाराज सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मन्दसौर के श्री संघ से विचार-विमर्श किया। श्रीसंघ पर पूनमचन्दजी की धमकी का गहरा प्रभाव पड़ा हुआ था। विनम्र किन्तु स्पष्ट शब्दों में कहा-'महाराजश्री इस दशा में हमारे यहाँ दीक्षा होना कठिन है।' यह उत्तर सुनकर गुरुदेव ने वहाँ से विहार कर दिया। जावरा पहुंचे तो वहाँ के श्रीसंघ ने भी यही उत्तर दिया। इन विघ्नों से चौथमलजी बहुत क्षुभित हुए। उन्होंने अपनी माताजी से शीघ्र दीक्षा दिलवाने की प्रार्थना की । माता ने कहा--- "सादगीपूर्ण दीक्षा लेनी है तो जल्दी हो जायगी और यदि आडम्बरपूर्वक समारोह के साथ लेनी है तो प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी।" "हमें आडम्बरों से क्या काम ? दीक्षा ही तो लेनी है । आप सादगी से दीक्षा दिलवा दें।" चौथमलजी ने कहा। __ "ठीक है पुत्र ! मुझे भी अपना आत्मकल्याण करना है । तुम्हें दीक्षा दिलाकर मैं भी प्रव्रजित हो जाऊँगी।" पुत्र को आश्वासन देकर माता ने गुरुदेव से निवेदन किया। गुरुदेव ने कहा "मैंने भी खूब सोच-विचार लिया है। फाल्गुन शुक्ला ५ का दिन ठीक रहेगा। उपयुक्त अवसर और स्थान देखकर दीक्षा दे दंगा। तुम धर्मोपकरण लेकर तैयार रहना।" तिथि निश्चित होते ही माता-पुत्र दोनों हर्ष से भर गए। गुरुदेव बड़लिया, ताल होते हुए बोलिया पधारे। संकल्प पूरा हुआ वि० सं० १६५२, फाल्गुन शुक्ला ५, रविवार का दिन, पुष्य नक्षत्र का योग, शुभ मुहूर्त । ऐसे शुभमुहर्त में कविवर्य श्री हीरालालजी महाराज ने चौथमलजी को दीक्षा प्रदान कर दी। अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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