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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु : ४५० : गीता दर्शन श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित करते हुए कहते हैं कि मनुष्य देह और आत्मा का मिला हुआ समुच्चय है । देह के मरने पर आत्मा मरता नहीं है । यह आत्मा न तो कभी मरता है और न जन्मता ही है। ऐसा भी नहीं है कि एक बार होकर फिर होवे नहीं, आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है; शरीर का वध हो जाए तो भी आत्मा मारा नहीं जाता । आत्मा अमर और अविनाशी है । जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार देही अर्थात् आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करता है। सबके शरीर में रहने वाला आत्मा सदा अवध्य है । ऐसी अवस्था में केवल शरीर के मोह से, अपने धर्म या कर्तव्यपथ से विचलित होना मनुष्य को शोभा नहीं देता-गीता-२-१३, २-१६, २-१०, २-२२, २-२३, २-३० । बौद्धधर्म महात्मा बुद्ध धम्मपद में कहते हैं कि जो अपनी आत्मा को प्रिय समझता है, उसको चाहिए कि आत्मा की रक्षा करे। अपनी आत्मा को पहले यथार्थता में लगावे तब दूसरों को शिक्षा दे। आत्मा को वश में करना ही दुस्तर है, आत्मा ही आत्मा का सहायक है, आत्मदमन से मनुष्य दुर्लभ सहायता प्राप्त कर लेता है, आत्मा से उत्पन्न हआ पाप आत्मा को नाश कर देता है । आत्मा को हानि पहुँचाने वाले कर्म आसान हैं, हित करने वाले शुभकर्म बहत कठिन हैं। -धम्मपद : अत्तवग्गो द्वादसमो १,२,२,४,५,६,७)। जो कार्य अबौद्ध-दर्शन आत्मा से लेते हैं, वह सारा कार्य बौद्ध-दर्शन में मन-चित्त विज्ञान से ही लिया जाता है। आत्मा को जब शाश्वत, ध्र व, अविपरिणामी मान लिया तो फिर उसके संस्कारों का वाहक होने की संगति ठीक नहीं बैठती, किन्तु मन=चित्त=विज्ञान तो परिवर्तनशील है, वह अच्छे कर्मों से अच्छा और बुरे कर्मों से बुरा हो सकता है। धम्मपद की पहली गाथा है : सभी अवस्थाओं का पूर्वगामी मन है, उनमें मन ही श्रेष्ठ है, वे मनोमय हैं । जब आदमी प्रदुष्ट मन से बोलता है व कार्य करता है, तब दुःख उसके पीछे-पीछे ऐसे हो लेता है जैसे (गाड़ी के) पहिये (बैल के) पैरों के पीछे-पीछे । न मन आत्मा है, न धर्म आत्मा है और न ही मनो-विज्ञान आत्मा है। 'आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न है', ऐसा कहना, या यह कहना कि 'आत्मा और शरीर दोनों एक है'-दोनों ही मतों से श्रेष्ठ जीवन व्यतीत नहीं किया जा सकता, अतः तथागत बीच के धर्म का उपदेश देते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद से दुःख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। अविद्या के ही सम्पूर्ण विराग से, निरोध से संस्कारों का निरोध तथा दुःख-स्कन्ध का निरोध होता है। जैनदर्शन जैनदर्शन के अनुसार जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है : बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा। परमात्मा के दो प्रकार हैं-अर्हत् और सिद्ध । इन्द्रिय-समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला बहिरात्मा है । आत्म-संकल्प-देह से भिन्न आत्मा को स्वीकार करने वाला अन्तरात्मा है। कम-कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है। केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को जानने वाले स-शरीरी जीव (आत्मा) अर्हत हैं तथा सर्वोत्तम सुख (मोक्ष) को संप्राप्त ज्ञान-शरीरी जीव सिद्ध कहलाते हैं । जिनेश्वरदेव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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