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________________ : १७ : उद्भव : एक कल्पांकुर का || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ किन्तु संसार में ऐसे भी लोग होते हैं जो धार्मिक जनों को पाप के गर्त में ढकेलने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। अपनी क्षुद्र वासनापूर्ति के लिए घोर अनैतिक कर्म करते हैं। ऐसे ही एक ठाकुर की दृष्टि रंगूजी पर पड़ गई। वह ताक-झांक करने लगा । रंगूजी ने उसे निवेदन करवाया कि "मैं उनकी पुत्री के समान हूँ। अपनी हरकतों को बन्द करने की कृपा करें।" लेकिन वासना के कीड़ों में विवेक कहाँ ? उस पर विनय का उलटा प्रभाव हुआ। उसने रंगूजी को दो-चार बदमाशों के द्वारा उठवा कर मंगवाने (अपहरण) की योजना बना ली। ठाकुर के तौर-तरीकों से रंगूजी को अपना शील असुरक्षित दिखाई दिया। शीलरक्षा के लिए उन्होंने दूसरी मंजिल से कूदकर अपने प्राणोत्सर्ग का विचार किया। रात को जब वे प्राणोत्सर्ग के लिए उद्यत थीं तभी ऊँट पर बैठा एक व्यक्ति आया । उसने कहा-“बहन ! इस ऊंट पर बैठ जाओ। मैं तुम्हारे अभीष्ट स्थान पर पहुंचा दूंगा।" हृदय को हृदय भलीभांति पहचानता है। रंगजी को उस ऊँट वाले पर विश्वास हआ। वे ऊंट पर बैठ गईं। कुछ ही समय बाद जब उन्होंने आँखें खोलीं तो अपने को पीहर में पाया। कुछ समय बाद रंगूजी ने पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज के प्रवचन सुनकर दीक्षा ग्रहण कर ली। पुत्र ! यह उन्हीं रंगूजी का मकान है । बेटा ! दृढनिश्चयी और दृढ़धर्मी व्यक्तियों के जीवन में ऐसी घटनाएं हो ही जाती हैं । उनके मार्ग को विघ्न-बाधाएँ स्वयमेव नष्ट हो जाती हैं । इस घटना से चौथमलजी की दीक्षा-भावना और भी दृढ़ हो गई। धम्मोत्तर में रहते हुए माता-पुत्र को काफी दिन हो गये थे। पूनमचन्दजी की निगरानी में भी कुछ ढील आ गई थी । एक दिन वहां से किराये की सवारी लेकर दोनों माता-पुत्र नीमच आ गये। उनके जाने से पूनमचन्दजी क्रोध में भर गये। व्यापार समेटना नीमच में चौथमलजी की वैराग्य भावना को और भी बल मिला । उनके पड़ोस में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। वे उसकी शवयात्रा में सम्मिलित हुए। श्मशान में उस पुरुष की चिता जल रही थी और उनके मन में वैराग्य की ज्योति जल रही थी। घर लौटकर आए और माता से आज्ञा लेकर पूज्य अमोलक ऋषिजी महाराज के दर्शन करने प्रतापगढ़ चले गये। उनके प्रवचन से वैराग्य भावना और बढ़ी। वहाँ से छोटी सादड़ी (मेवाड़) गये। पूज्य श्रीलालजी महाराज और शंकरलालजी महाराज के दर्शन किये। चार रात्रि का आगार रखकर तिविहार रात्रिभोजन का यावज्जीवन त्याग कर दिया। फिर लौटकर घर आये तो माता ने कहा"बेटा ! कारोबार समेट लो। लेना-देना साफ कर लो।" पुत्र ने माता की सलाह मानी और व्यापार समेटना शुरू कर दिया । कुआँ, आम के वृक्ष और सारी चल-अचल सम्पत्ति बेच दी। नाई ने दुःख प्रगट करते हुए कहा कि मेरे यजमान का एक घर कम हो जायेगा तो अपने कानों की सोने की बालियाँ देकर उसे प्रसन्न कर दिया। एक व्यक्ति का मकान १५०) रु. में इनके पिताजी ने गिरवी रखा था, उसे भी उस व्यक्ति को वापिस लौटा दिया। इनके सद्व्यवहार की प्रशंसा सम्पूर्ण नगर में होने लगी। उसी समय निम्बाहेड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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