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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । प्रवचन कला की एक झलक : ४२६ : प्रेरित होकर असत्य का प्रयोग करते हैं, वे भी असत्य को अच्छा नहीं समझते। उनके अन्तःकरण को टटोलो तो प्रतीत होगा कि वे असत्य से घृणा करते हैं, और सत्य के प्रति प्रीति और भक्ति रखते हैं। ६४. जब तक किसी राष्ट्र की प्रजा अपनी संस्कृति और अपने धर्म पर दृढ़ है तब तक कोई विदेशी सत्ता उस पर स्थायी रूप से शासन नहीं कर सकती। ६५. अगर आप अपनी जुबान पर कब्जा करेंगे तो किसी प्रकार के अनर्थ की आशंका नहीं रहेगी। इस दुनिया में जो भीषण और लोमहर्षक काण्ड होते हैं, उनमें से अधिकांश का कारण जीभ पर नियन्त्रण का न होना है। ६६. गुण आत्मा को पवित्रता की ओर प्रेरित करते हैं, दोषों से आत्मा अपवित्र-कलूषित बनता है। गुण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आत्मा को स्वरूप की ओर ले जाते हैं, जबकि दोष उसे विकार की ओर अग्रसर करते हैं । ६७. आत्मशुद्धि के लिए क्षमा अत्यन्त आवश्यक गुण है। जैसे सुहागा स्वर्ण को साफ करता है, वैसे ही क्षमा आत्मा को स्वच्छ बना देती है। ६८. अमृत का आस्वादन करना हो तो क्षमा का सेवन करो। क्षमा अलौकिक अमत है। अगर आपके जीवन में सच्ची क्षमा आ जाए तो आपके लिए यही धरती स्वर्ग बन सकती है। ६६. कृषक धान की प्राप्ति के लिए खेती करता है तो क्या उसे खाखला (भूसा) नहीं मिलता है ? मगर वह किसान तो मूर्ख ही माना जाएगा जो सिर्फ खाखले (भूसे) के लिए खेती करता है। इसलिए जहाँ तपस्या को आवश्यक बताया गया है, वहीं उसके उद्देश्य की शुद्धि पर भी पूरा बल दिया है। उद्देश्य-शुद्धि के बिना क्रिया का पूरा फल प्राप्त नहीं हो सकता। ७०. भोग का रोग बड़ा व्यापक है । इसमें उड़ती चिड़िया भी फंस जाती है। अतएव इससे बचने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए और चित्त को कभी गृद्ध नहीं होने देना चाहिए। ७१. तीन बातें ऐसी हैं जिनमें सब्र करना ही उचित है-किसी वस्तु का ग्रहण करने में, भोजन में और धन के विषय में; मगर तीन बातें ऐसी भी हैं, जिनमें सन्तोष धारण करना उचित नहीं है-दान देने में, तपस्या करने में और पठन-पाठन में। ७२. निश्चय मानो कि सुख की कुंजी सन्तोष है, सम्पत्ति नहीं; अतएव दूसरों की चुपड़ी देख कर ईर्ष्या मत करो । अपनी रूखी को बुरा मत समझो और दूसरों की नकल मत करो। ७३. बीज बोना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु बो देने के बाद इच्छानुसार अंकुर पैदा नहीं किये जा सकते । अपढ़ किसोन भी जानता है कि चने के बीज से गेहूं का पौधा उत्पन्न नहीं होता, मगर तुम उससे भी गये-बीते हो। तुम सुख पाने के लिए कदाचरण करते हो। ७४. तीर्थंकर कौन होता है ? जगत् में अनन्त जीव हैं। उनमें जो ऊँचे नम्बर की करनी करता है, वह तीर्थंकर बन जाता है। ७५. यह समझना भूल है कि हम तुच्छ हैं, नाचीज हैं, दूसरे के हाथ की कठपुतली हैं, पराये इशारे पर नाचने वाले हैं, जो भगवान् चाहेगा वही होगा, हमारे किये क्या हो सकता है ? यह दीनता और हीनता की भावना है। अपने आपको अपनी ही दृष्टि में गिराने की जघन्य विचारधारा है । जीव का भविष्य उसकी करनी पर अवलम्बित है। आपका भविष्य आपके ही हाथ में है, किसी दूसरे के हाथ में नहीं। ७६. जब आपके चित्त में तृष्णा और लालच नहीं होंगे तब निराकुलता का अभूतपूर्व आनन्द आपको तत्काल अनुभव में आने लगेगा। ७७. मला आदमी वह है जो दुनिया का भी भला करे और अपना भी । जो दुनिया का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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