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________________ :४१६ : वाणी के जादूगर | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ आनन्द-विभोर हो जाते थे, चातक की भाँति श्रोता आपके मुख की ओर ताका करते थे । और घण्टों तक प्रवचन सुनने के बाद भी श्रोताओं की अन्तरेच्छा लालायित रहा करती थी। सफल वक्ता की यही विशेषता है कि-सभा चातुर्य के साथ-साथ अरुचि की ओर जाते हुए श्रोताओं को रोके । आपकी प्रवचन शैली अत्यधिक सबोध-सरल एवं हृदयग्राहिणी रही है। क्या ग्राम्य जनता, क्या नागरिक, क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित सभी आनन्द-विभोर होकर लौटते थे। पुनः दूसरे दिन आने का स्वतः उनका मन हो जाता था। कितने पिपासु तो एक घण्टे पहले सभा में अपना स्थान रिजर्व बना जाते थे। जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर, ओसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी, मुसलमान, हरिजन, स्वर्णकार, कुंभकार राजपूत, मोची, माली, कृषक आदि अन्य और भी कई जातियों के नर-नारी आपकी प्रवचन पावन गंगा में स्नान किया करते थे। क्या बालक, युवक और क्या वृद्ध सभी को इस ढंग से गुरुदेव शिक्षाप्रद बातें फरमाते थे, मानो आत्मीयता का अमृत बरसा रहे हों। किसी को अरुचि कारक प्रतीत नहीं होता था। श्रोता अपने मन में यह समझते थे कि महाराजश्री मेरे धर्मग्रन्थ से ही बोल रहे हैं। मेरे लिए ही । इसलिए सभी श्रोता आपश्री को अपना धर्मगुरु मानते थे। क्योंकि आपके उपदेश सर्व सुखाय, हिताय हुआ करते थे। दुर्लभ विशेषताएं आप अपने व्याख्यानों में कभी भी अन्यमत और उनकी मान्यताओं का खण्डन नहीं करते थे; हाँ, अपने मत-मान्यताओं का मण्डन करने में कभी भी नहीं चूकते थे। प्रसंग के अनुरूप वाणी में रस और अलंकार अद्भुत होते थे। फलतः कभी सारी जन-मेदिनी खिलखिला उठती, कभी करुणा रस में भीग जाती थी, तो कभी अद्भुत और शान्तरस में बह जाती । समन्वयात्मक आपकी शैली झोंपड़ी से लेकर राजघराने तक और रंक से लेकर राजा-महाराजाओं के जीवन तक पहुँची है। एक स्वर से सभी ने आपके अमृतोपम उपदेश को प्रभु की वाणी मानकर सम्मान किया है । क्या ऊपर-दर्शित विशेषता कम है प्रसिद्ध वक्ता के लिए? क्लिष्ट और नीरस विषय को सुगम, सरस और रुचिकारक बनाकर श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत करना; यह विशिष्टता आपश्री में थी। और वह अपने ढंग की अनूठी प्रवचन शैली में । वक्ता, विद्वान, लोकप्रिय समयज्ञ और मानवमात्र के प्रति करुणाशील थे श्री जैन दिवाकर जी महाराज । एक उदाहरण देखिये एक भौतिक विज्ञान विशारद ने जैन दिवाकरजी महाराज के समीप आकर तर्क किया "महाराजश्री, बुरा मानने की जरूरत नहीं है, मैं साफ-साफ कह देता हूँ। आजकल जितने भी मत, पंथ और वाद हैं केवल दुकानदारी मात्र है । एक भी वाद प्रमाणित नहीं है, आत्मवाद भी एक ऐसा ही ढकोसला मात्र है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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