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________________ :४०७: श्री चौथमलजी महाराज की प्रवचन-कला श्री जैन दिवाकर - म्मति- ठान्य बुलन्द रहा है। धर्म जीवन-क्रान्ति और समाज-सुधार का संवाहक होता है। पर जब उसका तेज मन्द पड़ जाता है तब वह रूढ़ि बन जाता है। मुनिश्री ने देखा की धार्मिक लोग भी सामाजिक कुप्रथाओं के शिकार हो रहे हैं और सामाजिक जिम्मेदारी के नाम पर वे कुप्रथाओं का भार ढो रहे हैं । इस स्थिति में एक क्रान्तद्रष्टा धार्मिक महापुरुष कैसे चुप रह सकता है ! उन्होंने वृद्ध विवाह, पर्दा-प्रथा, फैशनपरस्ती, सास-बहू के झगड़े आदि पर कटु प्रहार किया और इनके दुष्परिणामों की ओर जन-साधारण का ध्यान आकृष्ट किया। विषय-लोलुप वृद्धों को सावधान करते हुए आपने कहा- "हे वृद्ध ! तेरे जीवन का मध्याह्न बीत चुका है। तेरी जिन्दगी संध्या की बेला में आ उपस्थित हुई है । संध्या अधिक समय तक नहीं टिकती । अतएव तेरे जीवन की संध्या भी शीघ्र ही अन्धकारमयी रजनी के रूप में परिणत होने को है। प्रकृति ने तेरा एक बन्धन तोड़ दिया। तू इसे अपना अहोभाग्य समझ ! पत्नी के वियोग को अपने लिए चेतावनी समझ । सावचेत होजा। विषय-वासना के विषैले अंकुरों को अन्तःकरण की भूमिका से उखाड़ कर फेंक दे । -दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग १२, पृष्ठ १०७ महिलाओं में प्रचलित (विशेषत: मारवाड़ी महिलाओं में) फैशनपरस्ती और पर्दाप्रथा की निस्सारता पर चोट करते हुए मुनिश्री ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा- "एक ओर हाथ भर का लम्बा बूंघट और दूसरी ओर यह बारीक वस्त्र देखकर विवेकी पुरुषों को खेद और आश्चर्य का पार नहीं रहता। आश्चर्य तो इस बात का है कि पुरुष अपने परिवार की महिलाओं को कैसे यह लज्जाहीन वस्त्र खरीद कर देते हैं, और खेद इस बात का है कि कुलीन बहिनें फैशन के मोह में फैसकर किस प्रकार निर्लज्ज बन जाती हैं। -दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग १३, पृष्ठ ३८ सामाजिक कुरीतियों के साथ-साथ धामिक क्रियाएँ भी विकृत होने लगीं। सामायिक जैन साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रत्येक श्रावक-श्राविका के लिए यह आवश्यक दैनिक कर्तव्य है। इसके द्वारा समभाव प्राप्ति और सांसारिक माया-मोह से छूटने का अभ्यास किया जाता है, पर जब रस्मी तौर पर ही इसका पालन होता है तो वह निस्सार बन जाती है। इस प्रसंग में मुनिश्री का यह हास्य-व्यंग्य मिश्रित उदाहरण देखिए एक स्त्री सामायिक करने बैठी और सोचने लगी—'कहीं कुत्ता घर में न घुस आए। पाड़ा गुड़ की भेली न खा जाय।' वह ऐसा सोच ही रही थी कि उसका पति आ गया और बोला दुकान की चाबी और पन्सेरी चाहिए । स्त्री ने सोचा-'सामायिक में इन चीजों को बतलाने से दोष होता है। अतएव उसने चौबीसी गाना शुरू किया और उसी में सभी कार्यों को हल कर दिया पहले बांदू श्री अरिहन्त, कूची तो ऊँची पडन्त । पाड़ो तो भेली चरन्त, पन्सेरी घट्टी अडन्त, हो जिनजी।। -दिवाकर दिव्य ज्योति, भाग १६, पृष्ठ ६२ "कहिए कैसी बढ़िया सामायिक है ?" मुनिश्री ने धर्म के नाम पर दी जाने वाली पशुबलि की निस्सारता और भक्तों की अज्ञानता पर भी कटु प्रहार किया। राजस्थान और मध्य प्रदेश में राजाओं का शासन होने से राजमन्दिरों तक में पशुबलि होती थी। फिर प्रजा का तो कहना ही क्या ? मनोकामना पूरी करने के लिए देवमन्दिरों को रक्तरंजित कर दिया जाता था। इस घिनौनी प्रथा को देखकर मुनिश्री का कलेजा काँप उठता था। वे दयाभाव से पसीज उठते थे। उन्होंने आत्मा के सम्पूर्ण बल से यह निश्चय किया कि वे इस बलि-प्रथा के खिलाफ अभियान छेड़ें और सचमुच उन्हें आशातीत सफलता मिली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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