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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || व्यक्तित्व की बहरंगी किरणे : ४०४ : ---0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-2 गुरु आत्मा के साथी इन्दौर चातुर्मास में एक स्वर्णकार नियमित रूप से गुरुदेव का व्याख्यान १ सुनता था। बहुत प्रेमी हो गया । एक दिन बोला--महाराज साहब ! मुझ गरीब के घर भी गोचरी (भिक्षार्थ) चलो ! गुरुदेव ठहरे समतायोगी। स्वर्णकार की प्रार्थना पर उसके घर पधारे। बादाम का हलुआ बना हुआ रखा था। गुरुदेव ने उसकी परिस्थिति देखी। गरीबी और अभाव की स्थिति में बादाम का हलुआ ! समझ गये इसने भक्तिवश हमारे लिए ही बनाया होगा ? पछा आज कोई महमान आ रहे है ? नहीं, महाराज! आज कोई त्योहार है? नहीं ! महाराज ! __ तो फिर बादाम का हलुवा किसलिए बनाया है ? स्वर्णकार बन्धु ने सकुचाते हुए उत्तर दिया-गुरु महाराज ! आप जैसे महापुरुष पधारे हैं ? यह तो आपकी सेवा। पास ही ज्वार की रोटी रखी थी। गुरुदेव ने पूछा-यह रोटी किसके ! लिए है ? हमारे लिए है बापजी ! तो आधी रोटी इसमें से हमें दे दो। आप हमारे गुरु महाराज है आपको ज्वार की रोटी कैसे दूं ? आप तो हलवा लीजिए-स्वर्णकार ने विनय के साथ कहा। नहीं ! हलुवा हमारे काम का नहीं ! रोटी हमारे काम की है ? जो चीज तुम्हारे अपने लिए है गुरु को उसी में से देना चाहिए ! गुरु महमान नहीं, आत्मा के साथी है...! स्वर्णकार की आंखों से आनन्द के आँसू टपक पड़ा। भक्ति-विह्वल हृदय से आधी रोटी गुरुदेव को देकर वह आनन्द सागर में डूब गया ! -केवलमुनि ---Oh-Oh-Oh-o-0-o-----2---- -0--0-- --0-----------o 0o-------- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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