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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ४०२ : भी पृथक् नहीं किये जा सकते। उनका कहना था कि "परोपकार करने के अनेक तरीके हैं । परन्तु सर्वश्रेष्ठ तरीका यह है कि आप दूसरे को धर्म के मार्ग पर लगा दीजिए। धर्म मार्ग में लगा देने से उसका परम कल्याण होगा और इससे आपको भी बड़ा लाभ होगा।" उनके यह शब्द सुनने में भले ही साधारण लगे किन्तु भाव इतने गम्भीर हैं कि हृदय में गहरे तक में पैठ जाने की इनमें सामर्थ्य है। मनुष्य की मानवता की पहिचान उनके निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त की जा सकती है'छोटों की सेवा करने में, सहायता करने में और उनके दुखों को दूर करने में ही बड़ों का बड़प्पन है।"२ श्री दिवाकरजी महाराज का साहित्य परोपकारिता के कार्यों से भरा हुआ है। इन्हीं कार्यों को देख अशोक मनिजी ने लिखा कि "सन्त अपने लिए नहीं विश्व के लिए जीता है, वह विश्व कल्याण के लिए ही प्राणोत्सर्ग करता है।"३ वास्तव में जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज परोपकारिता के लिए जन्मे, जिएं और आदर्श रख इस संसार से अनन्त में विलीन हो गये । मानव धर्म को पालन करने का श्री चौथमलजी महाराज के अतिरिक्त दूसरे का मिलना दूभर नहीं तो कठिन अवश्य है। मानव धर्म में विश्वास करने के कारण वे एकता के पक्षधर थे, यद्यपि उनकी एकता की भावना जैन समाज तक ही सीमित थी। वे पहिले अपने ही समाज में यह कार्य करना चाहते थे किन्तु उनकी दिव्य दृष्टि इससे परे भी थीं। एकता के लिए उन्होंने विनय का मन्त्र दिया जो कि विद्या से कहीं ऊँचा है। वे कहते थे 'हित की बुद्धि से किया गया अनुशासन ही लाभप्रद होता है।" मानव धर्म में प्रवर्तक होने के पहिले अपने आप को जानना आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है । ग्रीक दर्शन में सुकरात ने अपने को जानों' पर बल दिया है। श्री चौथमलजी महाराज के उपदेशों में भी यही है। उन्होंने कहा था-"बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो प्रत्येक विषय पर तर्कवितर्क करने को तैयार रहते हैं और उनकी बातों से ज्ञात होता है कि वे विविध विषयों के वेत्ता हैं, मगर आश्चर्य यह देखकर होता है कि आपने आन्तरिक-जीवन के सम्बन्ध में वे एकदम अनभिज्ञ हैं । वे 'दिया तले अंधेरा' की कहावत चरितार्थ करते हैं। आँख दूसरों को देखती है, अपने आप को नहीं देखती। इसी प्रकार वे लोग भी सारी सृष्टि के रहस्यों पर बहस कर सकते हैं, मगर अपने को नहीं जानते। वे व्यक्ति में समष्टि को देखना चाहते थे।" आखिर समाज हो या देश, सबका मूल तो व्यक्ति ही है और जिस प्रणालिका से व्यक्ति का उत्कर्ष होता है, उससे समूह का भी उत्कर्ष क्यों न होगा ?" यह वाक्य बताता है कि श्री चौथमलजी महाराज व्यक्ति की आन्तरिकता को कितना महत्त्व देते थे जिसके आधार पर ही मानव धर्म की नींव विश्व के झंझावत को झेल सकती है। "सारी धरती मेरा परिवार है" की उद्घोषणा उनके रोम-रोम में व्याप्त थी। वे केवल जैन समाज के ही नहीं थे, वे विश्व के प्रत्येक मानव के कल्याणार्थ जन्मे थे । मे मानवतावादी सिद्धान्तों के प्रचारक थे, सुगनमल भण्डारी, इन्दौर का कहना उचित ही है कि "मानव सेवा के पथ पर समर्पित व्यक्तित्व" उनका था । वे 'पराई-पीर' को जानते थे, व्यथा की वर्णमाला से वे परिचित १ दिवाकर दिव्य ज्योति भाग ७, पृ० २३८ २ वही, पृ० १४ ३ दिवाकर देशना-श्री अशोक मुनि-परिचय किरण ४ तीर्थकर वर्ष ७ अंक ७-८ पृष्ठ २५ ५ वही, पृष्ठ ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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