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________________ श्री जैन दिवाकर.म्मृतिग्रन्थ व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३१८: नहीं होता बल्कि दिल भी काला हो जाता है तथा फेंफड़े भी जलकर खाक हो जाते हैं। तमाखू पीने वालों को फटकारते हुए आपने कहा है बुरी ये चीज ऐसी, खर नहीं खाता इसे । इन्सान होके पीने को तू, किस तरह लाता इसे ॥' इसी प्रकार समाज में व्याप्त अन्य कुव्यसनों पर भी मुनिश्री ने कटु प्रहार कर देश की युवा पीढ़ी को नये समाज रचना के लिए ललकारा है। युवा पीढ़ी में उत्साह व उमंग होती है तथा वह शीघ्र पुरातन को त्याग कर नवीनता को आत्मसात कर सकने में सक्षम है । कुप्रथाओं तथा दकियानुसी विचारों को वह नष्ट कर सकती है। धर्म की रक्षा का भार भी युवकों पर है। तभी तो युवकों का आह्वान करते हुए आपने कहा उठो बादर कस कमर, तुम धर्म की रक्षा करो। श्री वीर के तुम पुत्र होकर, गीदड़ों से क्यों डरो॥ नीति, रीति, शांति, क्षमा कर्तव्य-पथ पर चलते हुए युवकों से आपने उत्साह से कुछ कर दिखाने का आह्वान किया जो इरादा तुम करो तो, बीच में छोड़ो मती। मजबूत रहो निज कोल पर, करके कुछ दिखलाइयो । मुनिश्री ने जहाँ क व्यसनों के प्रति लोगों को सचेत किया वहीं तप, दान, उद्यम आदि सद्गुण अपनाने पर भी जोर दिया। कर्मों की निर्जरा में तप का विशिष्ट स्थान है । तप के महत्व को स्पष्ट करते हुए आपने कहा लब्धि रूपी लक्ष्मी की लता का यह मूल है। नन्दिसेण विष्णु कुंवर का, सारा ही बयान है॥ सत्य सभी गुणों की खान है । सत्य के प्रताप से सर्प पुष्प की माला बन जाता है तो अग्नि जल में परिवर्तित हो जाती है। सत्य का आचरण करने वाले के लिए विष का प्याला भी अमृत कंड के समान है। सत्य मोक्ष-मार्ग की ओर निर्देशित करता है। सत्य की इसी महानता पर मुनि श्री चौथमलजी महाराज तन, मन, धन तीनों ही करबान करते हैं नियम सृष्टि जाय पलटी, सत्य कभी पलटें नहीं। सत्य पे ही तन मन धन तीनों ही कुरबान हैं । दान का जीवन व समाज में विशेष स्थान है। हमारे इतिहास में अनेक दानवीरों का वर्णन है। दान से दरिद्र, दुर्भाग्य व अपयश तीनों का विनाश होता है। इसी दान के प्रताप को मुनिश्री यों प्रकट करते हैं पाप रूपी तम हरण को, पूण्य रवि प्रकट करे। निर्वाण पद उसको मिले, एक दान के परताप से ॥' उद्यम ही लक्ष्य प्राप्ति का साधन है। बिना उद्यम या परिश्रम के किसी भी कार्य की १ जन सुबोध गुटका पृ० २५४ । ३ वही पृ० ३-४ । ५ वही, पृ० १०-११ । २ गजल गुलचमन बहार, पृ० ३ । ४ जन सुबोध गुटका, पृ० ७ । ६ वही, पृ० २४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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