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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।। एक पारस-पूरुप का गरिमामय जीवन : १२ : माता केसरबाई ने भी उस रात भयंकर स्वप्न देखा । सम्पूर्ण घटना स्वप्न में उनकी आँखों के सामने घूम गई । वह सिहर गई, पसीना छूट गया । सुबह मालूम हुआ कि कालूराम रात को घर नहीं आये। उनके न आने से पिता भी चिन्तित हुए । तलाश की तो नगर सीमा के पास जंगल में कालूराम का निर्जीव शरीर मिल गया । गंगारामजी रोष में भरकर कानूनी कार्यवाही करने को उद्यत हुए तो केसरबाई ने समझाया--- "संतोष धारण करो । कालू तो अब वापिस आयेगा नहीं। व्यर्थ ही शत्रुता बढ़ेगी। वैर से वैर शांत नहीं होता और रक्त से रक्त नहीं धुलता । रक्त धोने के लिए स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है और वैर को शांत करने के लिए क्षमा के पीयुष की। आप भी काल के हत्यारों को क्षमा कर दीजिए।" कितना उदार हृदय था वीरमाता केसरबाई का। उसके इन वचनों से गंगारामजी का क्रोध भी शांत हो गया । पुत्र की अन्त्येष्टि कर दी गई। इस घटना का किशोर चौथमलजी पर गम्भीर प्रभाव पड़ा । उनकी गम्भीरता और भी गहरी हो गई। समझ लिया कि व्यसन का परिणाम ऐसा ही कर होता है। यह घटना संवत् १६४८ की है। दूसरा आधात : पिता का बिछोह कालूरामजी की मृत्यु के बाद गंगारामजी मुख से तो कुछ न बोले लेकिन कालूराम के अकाल-मरण ने उनकी कमर ही तोड़ दी। पुत्र पिता का सहारा और उसके बुढ़ापे की लाठी होता है। यह सहारा छुट जाने से गंगारामजी का दिल टूट जाना स्वाभाविक ही था। पुत्र का गम उन्हें अन्दर ही अन्दर पीड़ित करने लगा। 'चिता जलावे मृतक तन, चिन्ता जीवित देह ।' गंगारामजी ने खाट पकड़ ली। केसरबाई और चौथमलजी सेवा में जुट गए। लेकिन गम की कोई दवा नहीं होती। उनकी सेवा व्यर्थ हो गयी। कालराम का गम काल बनकर उन्हें खा गया । सं० १९५० में श्री गंगारामजी का स्वर्गवास हो गया। केसरबाई का सुहाग सिन्दुर पुछ गया और चौथमलजी के सिर से पिता का साया हट गया । माता और पुत्र दोनों का जीवन दुःख से भर गया; किन्तु दोनों ही सुसंस्कारी थे इसलिए उनकी विचारधारा वैराग्य की ओर मुड़ गई। दोनों को ही संसार असार दिखाई देने लगा। केसरबाई के दुःख का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। पति-मरण की पीड़ा पत्नी ही जान सकती है । यदि किशोर चौथमलजी का भार न होता तो वे उसी समय प्रवजित हो जाती। लेकिन उन्हें अपना सांसारिक कर्तव्य पालन करता था, चौथमलजी को काम पर लगाना था और उनकी गृहस्थी जमानी थी। ये कार्य सम्पन्न होते ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। विवाह-बन्धन पहले हमने वताया है कि श्री चौथमलजी गम्भीर रहते थे। पुत्र की गम्भीरता ने माताके हृदय को चिन्तित कर दिया । परिवारीजन भी उनकी वैराग्य भावना को संसार की ओर मोड़ने को तत्पर हो गए। चौथमलजी की आयु १६ वर्ष की हो चुकी थी। इस अवस्था में स्त्री का बन्धन ही सबसे कड़ा बन्धन माना जाता है। परिवारी जनों की दृष्टि भी इधर ही गई। उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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