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________________ :३७१ : साहित्य में सत्यं शिवं सुन्दरं के संस्कर्ता सौ वर्षों तक भोगे कर्म जो जीव नर्क में जाई । उतने कर्म एक नो कारसी, छिन में देत नसाई ॥ एक पोरसी तप हजार वर्षों का, कर्म खपावे । डेढ़ पोरसी दस हजार, वर्षों का कर्म हटावे ॥ दो पोरसी से लाख वर्ष के अशुभ कर्म कट जावे। एकाशन दस लाख वर्ष के कर्म कठोर मिटावे ॥ एकल ठाणा क्रोड वर्ष के करे कर्म का नाश । दस करोड वर्षों के कर्म का नीवी करे विनाश ।। सौ कोटी वर्षों के कर्म को, आयंबिल तप हरता। दस हजार क्रोड वर्षों का, अघ उपवास क्षय करता ।। दस लाख क्रोड वर्षों के अभिग्रह कर्म हटाता। ज्ञान प्राप्त हो आभ्यान्तर से वाह्य लब्धि का दाता।। यही निर्जरा धर्म अन्त में मोक्ष गति ले जाता। होय निरंजन निराकार फिर गर्भवास नहीं आता ।। नो कारसी, पौरसी, आदि जैसे साधारण तप से होने वाले सैकड़ों-हजारों और लाखों वर्षों के कर्मों के क्षय होने को सम्भवत लोग गपोड़े माने और अन्ध-विश्वास कहकर उपेक्षा करदें अथवा हँसी उड़ावें, तो ऐसे लोग जीवन की वास्तविकता से अपरिचित हैं । वे समझते हैं कि जीवन का आदि और अन्त कुछ वर्षों के बीच ही है । लेकिन जीवन एक महायात्रा है और यह अज्ञात है कि यह यात्रा कब प्रारम्भ हुई थी और कब अन्त होगी ? जब तक अन्त नहीं है, तब तक जीव जन्ममरण के चक्र में घूमता रहेगा । वे लोग तथागत बुद्ध के इस कथन को क्यों भूल जाते हैं, जो उन्होंने पर में कांटा चुभ जाने पर कहा था कि भिक्षुओं ! आज से एकानवै जन्म पूर्व मैंने किसी जीव का घात किया था, फलतः आज यह काटा पैर में चमा है। इसलिये लघुतम तप से भी लाखों वर्षों के कर्मों का क्षय होना कोई अनहोनी बात नहीं है। भले ही वे तप न करें, किन्तु श्रद्धा से विचलित न हों । जब भी उनको मोक्ष प्राप्ति का अवसर आयेगा, तब तप के राजमार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा और इस मार्ग पर चलकर ही वे मोक्ष को प्राप्त करेंगे। तप की तरह शील और संयम जीवन विकास की दो पांखें हैं। इन दोनों के योग से तप में तो तेजस्विता आती ही है, लेकिन उसके साथ लोक-प्रतिष्ठा, लोक-सम्मान भी प्राप्त होता है। इनकी साधना के लिये न तो शरीर को कष्ट देना है और न कोई बाह्य प्रदर्शन करना है । करना है, तो सिर्फ इतना कि अपनी इन्द्रियों और मन को नियंत्रित करो। इनकी प्रवृत्ति को विषयविकारों में नहीं फंसाओ ! न्याय-नीति पूर्वक लोक-व्यवहार का निर्वाह करो। इतनी सरल बात को भलकर भी कई रूप के लोभी होकर, कई रस के लोभी होकर, कई जिह्वा के लोभी होकर पतन की ओर बढ़ते हैं । ये कामान्ध व्यक्ति इन्द्रियों के दास होते हैं । ऐसों का चित्रण पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज की रचनाओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र किया गया है। क्योंकि यह मानव मन की कमजोरी है कि वह पतन की ओर तेजी से बढ़ता है, बिना प्रयास के ही बढ़ जाता है, लेकिन ऊपर चढ़ने उत्थान के लिये प्रयत्न करना पड़ता है। जैसे लेटे हुए से बैठने में बैठे से खड़े होने में, खड़े से चलने में व्यक्ति को कुछ न कुछ श्रम करना पड़ता है, लेकिन चलने से खड़े होने आदि में कुछ भी श्रम नहीं लगाना पड़ता, बिना प्रयत्न के भी यह हो जाता है । यही उत्थान और पतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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