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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३५८ : सन्तों की श्रृंखला में-चाहे वे सन्त मध्यकालीन वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित हों, चाहे जैन धर्मावलम्बी हों या बौद्ध धर्मावलम्बी हों जगतवल्लभ प्रसिद्ध वक्ता जैन सन्त श्री दिवाकरजी महाराज की अज्ञानान्धकारनाशिनी ज्ञान रश्मियां हमेशा-हमेशा के लिए अपने प्रकाश को विकीर्ण करती रहेंगी। प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक भारत में श्रमण सन्तों की अविच्छिन्न परम्परा रही है । इस पावन धरा पर सदैव ही ज्योतिर्धर और प्रतिभा के धनी, सदाचारी, कर्मठ सन्त अवतरित होते रहे हैं। जिनके सदुपदेशों से अनेक, विवेकशून्य और दुराचारी राजाओं ने, शासकों ने कुमार्ग छोड़ सन्मार्ग अपनाया और अपने जीवन को सफल बनाया। जैन इतिहासकारों के अनुसार ऋषभदेव ने प्रजा के हितार्थ राजतन्त्र की स्थापना की और इस राजतन्त्र में उन्होंने त्याग सेवा तथा उच्च आदर्श को स्थापित किया, किन्तु अस कोऊ जनमेहूँ नहीं जग भाई, प्रभुता पायी जाहि मद नाही॥ कालान्तर में राज्यसत्ता में अनेक दुर्गुण प्रविष्ट हो गये। दुर्व्यसन और दुराचार का वातावरण बन गया—'यथा राजा तथा प्रजा'--इसलिए प्रजा के दुःख निवारणार्थ लोकोपकार की प्रेरणा से सन्तों ने राजाओं को सदुपदेश देकर धर्म मार्ग पर लगाया और जनता के कष्ट दूर किये। श्रमणसन्तों की परम्परा में श्री केशी श्रमण जिनके उपदेश से श्वेताम्बिकानगरी का कर एवं दुष्ट राजा 'प्रदेशी' अहिंसक एवं धर्मानुरागी बना। 'गर्दभिल्ल' मुनि की प्रेरणा से संयति जैसा मृगयाप्रेमी राजा 'संयति मुनि' बनकर अपने जीवन को सार्थक किया। भगवान महावीर के युग में-सुदर्शन श्रावक की प्रेरणा से अर्जुन मालाकार भगवान महावीर की वाणी को श्रवणकर आत्म-साधना-पथ का पथिक बना । आचार्य भद्रबाहु ने मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को त्यागवृत्ति का सबक दिया । सुहस्तिगिरि सरि की प्रेरणा से सम्राट सम्प्रति एक धर्म-प्रचारक के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार हरिभ्रद्र सूरि ने मेवाड़ के राजा-महाराजाओं को उपदेश देकर उनमें जीव दया एवं करुणा की लहर उत्पन्न की। शीलभद्र सूरि, आचार्य हेमचन्द्र सूरि, आचार्य हीरविजय सूरि का सन्तों की परम्परा में विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। __ आचार्य हीरविजय सूरि ने तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर महान् को अहिंसा की महत्ता को समझाया। इसी विशिष्ट श्रमण-परम्परा में जैन दिवाकर महामनीषी श्री चौथमलजी महाराज का जन्म आज से एक सौ वर्ष पूर्व नीमच (मालवा म०प्र०) की पावन धरा पर हुआ। जिन्होंने अहिंसा की ज्योति को झोंपड़ी से महलों तक, मजदूर-किसानों से मालिकों-जमीदारों तक, राजा-महाराजा, नवाब, सेठ-साहूकारों तक उनके मन-मस्तिष्क तक पहुंचाया। वास्तव में वे एक युग द्रष्टा थे। उनकी जन-जीवन में गहरी पैठ थी, वे समाज के सच्चे साक्षी थे । समाज की नाड़ी के अच्छे ज्ञाता थे। और सामाजिक बीमारियों का निदानात्मक उपचार करने वाले सिद्धहस्त एक सामाजिक चिकित्सक थे। आप अपने साथी-साधकों के लिए मार्ग-दर्शक, पथ-भ्रष्ट मले-भटकों के लिए मार्गदर्शक और दम्भी-पाखण्डियों के लिए एक प्रकाश स्तम्भ थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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