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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३५६ : विकसित-अविकसित, माक्षर-निरक्षर, सभी को प्रभावित किया, सभी को एक मार्ग सुझाया-'जीओ और जीने दो' सभी को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। सन्त चौथमलजी महाराज वास्तव में महत्त्वाकांक्षाओं के पंक में से कमल खिलाना जानते थे। उनकी दिव्य दृष्टि के समक्ष सभी मानवी एक से नजर आते थे। न कोई अमीर था, न कोई गरीब ; न कोई मोची था, न कोई महाजन; सभी 'जन' थे, सभी आत्मा थे । सभी के प्रति समभाव, ममभाव । सन्त दिवाकरजी महाराज एक अनोखे व्यापारी के समान थे-दुर्गुण छुड़ाते सद्गुण देते, अज्ञान के बदले ज्ञान देते, भौतिकता भुलाते आध्यात्मिकता देते। इस प्रकार सन्त दिवाकरजी महाराज ने धार्मिक क्षेत्र में, सामाजिक क्षेत्र में तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में समन्वयकारी दृष्टिकोण से एकता की आधारशिला रखी। नारी सुधार--भारतीय संस्कृति में "मातृदेवोभवः" से नारी को जो सम्मान दिया गया और आज तक इस सम्मान में कितनी कमी आ गयी यह विवेचनीय है। सामाजिक बन्धनों के कारण नारी समाज में जो कुण्ठायें उत्पन्न हुईं, उन्हें दूर करने के लिए समय-समय पर कार्य होते रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, समाज-सुधारकों, नेताओं एवं साधु-सन्तों ने नारी के जीवन-पक्ष पर, आचरण पर भले-बुरे विचार किये हैं । जीवन की आधारशिला नारी है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।" यही भारत हैं, हमारे चरित्रनायक सन्त दिवाकरजी महाराज ने नारी के आदर्श जीवन को प्रस्तुत किया, आपने अपने उपदेश से वेश्याओं को घृणित कार्य से दूर किया। आपने आदर्शनारी के जीवन की विशेषताएँ बताते हुए कहा है पहनो-२ सखी री ज्ञान गजरा-२ तुम्हें लगे अजरा ॥टेर।। शील को साड़ी ओढ़ ले ओरी, लज्जा गहनो पहन । प्रेम पान को खाय सखी री, बोलो सच्चा बैन ॥१॥ हर्ष को हार हृदय में धारो, शुभ कृत्य कंकण सोहाय । चतुराई को चूड़ी सुन्दर, प्रभवाणी बिंदली जोय ॥२॥ विद्या को तो बाजूबन्द सोहे, प्रम लौ लोंग लगाय।। दांतन में चूप सोहे ऐसी, धर्म में चूंप सवाय ॥३॥ नव पदार्थ ऐसा सीखो, नेवर को झणकार । चौथमल कहे सच्ची सजनी, ऐसा सजे सणगार ॥४॥ यह है नारी का शृगार जिसके धारण से 'इह लोक' और 'परलोक' दोनों में महत्त्व है। सन्त दिवाकरजी ने कन्या-विक्रय, बाल-विवाह, वृद्धविवाह आदि सामाजिक बुराइयों के विरोध में आवाज उठायी। आपने नारी जगत में नव-जाग्रति की भावना उत्पन्न कर दी थी। पतितोहार और सन्त दिवाकरजी महाराज सन्त दिवाकरजी महाराज मनसा, वाचा, कर्मणा से शुद्ध थे, पवित्र थे। उनका हृदय करुणा का आगार था । आपके मन और मस्तिष्क पर मानव-प्रेम की अमिट छाप थी। वे जैन तत्त्व ज्ञान के परम उपासक तो थे ही मानव-मात्र के सच्चे साथी थे। प्राणी मात्र के परम हितैषी थे। आपने अहिंसा, मैत्री, एकता और प्रेम का सन्देश घर-घर पहुंचाया और विश्व-बन्धुत्व की भावनाओं को पनपायी। समाज में घृणास्पद समझे जाने वाले वर्ग से सम्बन्धित जातियों-मोची, चमार, कलाल, खटीक, हरिजन, वेश्याओं तक को अपना सन्देश दिया, उनके जीवन-स्तर को ऊँचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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