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________________ : ३५३ : समाज-सुधार में सन्त-परम्परा श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ जैन दिवाकरजी महाराज न केवल प्रखर वक्ता ही थे, अपितु वे मानव प्रकृति के मर्मज्ञ विद्वान् भी थे। मुनिश्री अपने प्रवचनों में पुस्तकीय एवं शास्त्रीय उद्धरण ही नहीं रखते वरन् वे प्रत्यक्ष अनुभवों की पृष्ठभूमि पर मानव हृदय का परिष्कार करते थे। वे सन्त कबीर की भाँति प्रत्यक्षदर्शी थे"तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता आँखिन को देखी।" सन्त दिवाकरजी महाराज का धार्मिक दृष्टिकोण 'धर्म' की व्याख्या संसार के जितने भी मत, पन्थ या सम्प्रदाय हैं, सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। भारतवर्ष में ही यही स्थिति है। पुराने मीमांसा सम्प्रदाय के मानने वालों के अनुसार 'यज्ञादि' करना धर्म है। भगवान महावीर के समय में इसी मत का प्रचलन था। भगवान महावीर का इसी सिद्धान्त से संघर्ष हुआ। समाज में शिथिलाचार तीव्रगति से बढ़ रहा था। सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त था। हिंसात्मक कर्मकाण्डों में अधिकांश लोग विश्वास करते जा रहे थे। इन्हीं विषमताओं को नष्ट करने हेतु जैन धर्म का उदय हुआ। इसीलिए इसे 'लोकधर्म' भी कहा जा सकता है। क्योंकि लोकधर्म भाषा, प्रान्त, वर्ण, जाति आदि सीमाओं से मुक्त होता है और किसी के प्रति आग्रह नहीं रखता है। जैनधर्म का सूक्ष्म चिन्तन विश्वविख्यात है। जैनधर्म वस्तु के बाह्य रूप पर उतना ध्यान नहीं देता जितना उसके सूक्ष्म रूप पर । जैन धर्म की मान्यता है "वत्थुसहावो धम्मो" अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म कोई पृथक् वस्तु नहीं है। वस्तु का जो अपना असली स्वभाव है, स्वरूप है, वहीं धर्म है और अन्य वस्तु के मेल से जो स्वभाव या गुण बनता है वह नकली है, बिगड़ा हुआ है। इसी के समर्थन में सन्त दिवाकरजी ने भी फरमाया-वस्तु स्वभाव का नाम धर्म है, साथ ही सन्त दिवाकरजी महाराज ने सच्चे धर्म की व्याख्या प्रस्तुत की है सच्चा धर्म वही है जिसमें, भेद-भाव का नाम न हो। प्राणि मात्र की हित चिन्ता, जिसमें झगड़ों का काम न हो। X संयोग को कह विभावधर्म । है बिना धर्म के द्रव नहीं, मतिमान मनुज यह लखे मर्म ॥ जीवन की सार्थकता हेतु मुनिश्री ने धार्मिक मार्ग प्रस्तुत किया जिसके पालन करने से मानव जीवन सफल हो सकता है सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र, स्वधर्म इन्हें धारण कोजे । विषय कषायादिक पर धर्मों का, न कभी सेवन कीजे ॥ इस तरह सन्त दिवाकरजी महाराज ने भी धर्म का महत्त्व और वस्तु के स्वभाव को ही सच्चा धर्म माना है। आपने अपने सन्देश में, अपने उपदेश में मानव को मानव की भावना से महत्त्व दिया है, और जैन धर्म को मानव-धर्म के रूप में हमारे सामने रखा। समाज-सुधारक के रूप में सन्त दिवाकरजी महाराज जैन सन्त दिवाकरजी महाराज ने तात्विक, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक दार्शनिक, व्यावहारिक आदि विषयों पर बड़ी गम्भीरता के साथ विवेचन प्रस्तुत कर मानव-जीवन को समुन्नत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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