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________________ : ३२६ : सामाजिक समता के स्वप्न दृष्टा को वास्तविक रूप में समझने की। मनुष्य और कुछ बाद में है, सर्वप्रथम तो वह मनुष्य ही है। व्यक्ति समाज का एक अंग है। यदि वह अपने आपको समाज-स्रोत से नहीं जोड़ सके, अपने सबको समाज के रूप में परिणित न कर सके, तो उसका कोई महत्व नहीं है। अत: व्यक्ति का महत्व व अस्तित्व इस बात पर निर्भर है कि वह अपने स्व को समाज-हित के लिए कितना विराट् बना सकता है। यह विराट दृष्टि दिवाकरजी महाराज ने दी। जब मानव मानव ही है. तो उसमें भेद-भाव की रेखाएँ क्यों ? सामाजिक समता के मन्त्रदाता श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने अपने को उच्च वर्ग के मानने वालों को स्पष्ट शब्द में बताया है कि"यह अछूत कहलाने वाले लोग तुम्हारे भाई ही है । इनके प्रति घृणा-द्वष मत करो।" -'तीर्थकर' चौथमलजी अंक (तथा दि० दि० ११/९८), पृ० ३० "जूतों को बगल में दबा लेंगे, तीसरी श्रेणी के मुसाफिरखाने में जूतों को सिरहाने रख कर तो सोयेंगे मगर चमार से घृणा करेंगे?" यह क्या है ? -तीर्थकर चौथ० विशे० ३१ "भाइयो ! तुम्हें जातिगत द्वेष का परित्याग करके मनुष्य मात्र से प्रेम करना सीखना होगा। मानव मात्र को भाई समझ कर गले लगाना होगा।" -दि० दि. ११/8E समता और व्यवहार यदि समता की बात सिद्धान्त तक ही रहे और व्यवहार में प्रकट न हो तो वह निरर्थक है। चूंकि सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, कोई दु:ख नहीं चाहता और सभी जीना चाहते हैं। परन्तु यह कैसे सम्भव है ? एक का सुख दूसरे का दुःख । यदि कोई इसीलिए दुखी है कि उसके पड़ोसी सुखी हैं तो इसका अन्त नहीं । अतः होना चाहिए विषमता का। व्यवहार में समता से तात्पर्य यह है कि हम ऐसे कार्य नहीं करें जो किसी के लिए भय, दुःख, क्लेश का कारण बने । यदि कोई शोषण करता है, अधिक लाम हेतु अनुचित साधन प्रयोग करता है और कहे कि वह समता का उपासक है तो कौन इसे सत्य समझेगा? __ अतः नैतिक धरातल तैयार कर जैन दिवाकरजी महाराज इस ओर भी अभिमुख हुए। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के शोषण व मिलावट जैसे विषयों पर अपनी बातें स्पष्ट की। वे तो अपने जमाने से भी आगे थे। उनकी दृष्टि ही अनूठी थी "जो स्वामी अपने आश्रितों से लाभ उठाता है, किन्तु अपने समान नहीं बनाता, वह स्वार्थी है।" -वि० दि० ४, २५८ "सच्चा श्रावक कभी अन्याय से धन कमाने की इच्छा नहीं करता ।" -दि० दि० १-१६१ "व्यापार को भी जनता की सेवा का साधन मानकर जो चले वही आदर्श व्यापारी है। ऐसा व्यापारी अनुचित मुनाफा नहीं लेता, चीजों में मिलावट नहीं करता, धोखा नहीं देता।" -दि० दि०१६/२३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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