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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३२४: अनन्त लोक में माया-विमुख मन का आनन्दमय प्रवेश है । दीक्षा केवल बाह्याचार का आग्रहण ही नहीं है। बल्कि समता योग की साधना के लिए विषय-कषाय का विसर्जन है। दीक्षा का उद्देश्य महाव्रतों का मात्र प्रदर्शन नहीं बल्कि चरित्ररत्न का सम्यक् परिपालन एवं जीवन का ऊध्र्वीकरण है। कोई व्यक्ति दीक्षा को भूल से सुविधावाद न समझ ले। यह तो व्रतों की असिधारा पर साधक का प्रफुल्ल मन से अनुगमन है । हर्षमय प्रयाण है । श्री चौथमलजी महाराज संयम की इस सुतीक्ष्ण असिधारा पर चलने के लिए कटिबद्ध थे। वे किसी मंगल सुअवसर की उत्सुक हृदय से प्रतीक्षा कर रहे थे। किन्तु विधि के लेख अमिट होते हैं। विधाता उनके दीक्षा-पथ पर अवरोध के काँटे बिखेर रहा था। उनके ससुर श्री पूनमचन्दजी का विरोध प्रत्येक संघ को सोचने के लिए बाध्य कर देता था। पुत्री का मोह उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कर रहा था। वह ससुर से असुर नहीं बना । उसका विरोध उचित था कि अनुचित मैं इस समीक्षा में उतरना नहीं चाहता किन्तु एक बात अवश्य कहूँगा कि दीक्षा के उपरान्त उसका विरोध उपेक्षा बनकर अवश्य रहा होगा क्योंकि वह प्रतिकार नहीं बना । मोह बड़ा नीच और पतित होता है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए गजसुकुमार और सोमिल का एक उदाहरण ही पर्याप्त है। किन्तु चरित-नायक के जीवन-चरित्र के पवित्र पृष्ठों से ज्ञात होता है कि दीक्षा के उपरान्त रुष्ट ससुर ने आपको किसी भी उपसर्ग से आतंकित नहीं किया । शायद दिवाकर की कुछ रश्मियां उसकी तमसावृत्त हृदय गुहा में पहुंच गई हों और उसने आपके निष्काम त्याग का मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया हो। त्याग से बड़ा संसार में कोई बल नहीं। उसके सामने कभी पाषाण भी नवनीत पिण्ड बनकर पिघल जाता है। आपके त्याग मार्ग को ग्रहण करने के मंगल क्षणों की शोभा को तो कुछ ही आँखों को देखने का अवसर मिला। क्योंकि आपकी दीक्षा व्यर्थ के आडम्बर से एकदम मुक्त रही। किसी साधक की दीक्षा-शोभा हजारों हृदयों को वाह-वाह करने को विवश कर देती है। किन्तु जीवन-साधना किसी को भी आकृष्ट नहीं कर पाती और किसी साधक की दीक्षा बड़े ही साधारण रूप में सम्पन्न होती है किन्तु वह साधक अपने साधना-बल से संघ में एक असाधारण व्यक्तित्व बन जाता है और उसके आध्यात्मिक जीवन की अलौकिक शोमा जन-मानस को आश्चर्यचकित कर देती है। सर्ववन्दनीय पूज्य श्री चौथमलजी महाराज भी जैन शासन में एक ऐसे साधक थे जिनकी दीक्षा साधारण किन्तु आत्म-साधना असाधारण थी। आत्म-साधना साधु जीवन का सबसे ऊँचा लक्ष्य है। आत्म साधना का उद्देश्य है आत्मगुणों का उत्तरोत्तर विकास तथा अन्ततः पूर्णता की उपलब्धि । विकास के लिए बाधक कारणों को हटाना आवश्यक होता है । जैनधर्म की दृष्टि में कषाय साधना-पथ का सबसे बड़ा विघ्न है। कषाय का पूर्ण विजेता अरिहन्त है। जैनधर्म कषाय पर विजय पाने की एक साधना सारणी है। श्रावक तथा श्रमण कषाय पर विजय पाने वाले केवल साधक मात्र हैं। जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज भी अपने आपको अरिहन्त मार्ग का एक साधक ही समझते थे। जो अपने को साधक मानता है वह अवश्य उत्तरोत्तर विकास करता है और एक दिन संसार में महान् व्यक्तित्व का स्वामी बन जाता है । श्री चौथमलजी महाराज भी गुरु की चरणछाया में रहकर आत्म-साधना करने लगे और एक दिन जैन शासन की शान बन गये । जैन शासन में चरित्र का सम्यक परिपालन ही आत्म-साधना है। किन्तु वह ज्ञान के बिना सफल नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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