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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : ३०८ : पूर्व कोटा (राजस्थान) में जैन धर्मान्तर्गत स्थानकवासी मूर्तिपूजक और दिगम्बर मुनिराजों के एक पाट पर बैठकर प्रवचन हुए। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के श्रमण एवं श्रावकों का एक साथ मिलना और महावीर देशना का प्रवचन श्रवण करना कुछ लोग औपचारिकता समझें, तो उनके लिए इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है, लेकिन जो बिन्दु में सिन्धु के दर्शन करने वाले हैं और जो 'जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणई' के अनुयायी हैं, वे ही इसका मूल्यांकन कर सकते हैं। श्री जैन दिवाकरजी महाराज द्वारा बोया बीज अब विशाल वटवृक्ष का रूप धारण करने की ओर उन्मुख है और सम्प्रदायवाद के गहन गर्भगृहों में भी प्राणवायू एवं प्रकाश-ज्योति झिलमिलाने लगी है। जीवन-निर्माता! मानव जब जन्म लेता है, तब वह इन्सान होता है, हैवान नहीं; देव होता है, दानव नहीं। देवत्व उसके अन्तर में वास करता है । लेकिन बुद्धि-विकास के साथ युगीन वातावरण के कारण वह अपने देवत्व को भूल जाता है । वह दूसरों को चाहे नुकसान करे या न करे । लेकिन अपने मानवत्व को तो वह एकदम हार ही बैठता है । दुर्व्यसनों की कारा में पड़कर उस गुफा में छलाँग लगाता है, जहां पर उसे दुःख, दैन्य का साम्राज्य मिलता है। युगदृष्टा श्री जैन दिवाकरजी महाराज को यह दृश्य प्रतिदिन अपने विहार काल में देखने को मिलते थे। उन्होंने गम्भीरता से अध्ययन किया। एक विचार बार-बार उनके मन में चक्कर लगाता रहता था, कि गांवों में बसे भारत की इस स्थिति का कारण क्या है ? धार्मिक आस्थाओं में विश्वास करने वाले ग्रामवासियों में ऐसी कौनसी कमी है कि शुद्ध प्राकृतिक वातावरण होने पर भी ये भोले-भाले शुद्ध हृदय अशुद्ध हो रहे हैं। पवित्र जीवन की आकांक्षा रखते हए भी अपवित्रता में अपने आपको डुबो रहे हैं । इस गम्भीर चिन्तन से वे इस निष्कर्ष पर आये, कि भले ही व्यक्तिगत रूप से अपने जीवन का निर्माण करने के लिए अग्रसर हो गया हूँ, लेकिन जब तक आस-पास का वातावरण शद्ध नहीं होगा. तो मेरी साधना में आंशिक असफलता रहेगी । अतः मेरा अनुभव स्व के लिए ईष्ट होने के साथ-साथ पर को भी कल्याणप्रद होना चाहिए । बस ! एक निश्चय किया, कि मैं "तिनाणं तारयाणं" श्रमण भगवान महावीर का लघुतम अदना अनुगामी शिष्य हूँ और उक्त विशेषण गत भावों को स्पष्ट करने का जब यह अवसर स्वयमेव प्राप्त हो गया है, तो अब मुझे चूकना योग्य नहीं है । पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने अपने निश्चय को मूर्त रूप देना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने इस आभिजात्य वर्ग को सम्बोधित किया, जो जागीरदार, ठाकुर, उमराव, राणा, राजा आदि के रूप में ग्रामीण जनता पर शासन करता था और साधारण जन तो 'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत का अनुसरण करने वाले होते हैं । अतएव यदि राजा परोपकारपरायण, व्यसन मुक्त, सदाचारी, नैतिक एवं न्यायपूर्वक शासन करता है, तो प्रजा की भी वैसी ही प्रवृत्ति व आचार-विचार होते हैं। श्रद्धय श्री जैन दिवाकरजी महाराज का विहार-क्षेत्र ग्रामीण भारत था ही और अब विचार-क्षेत्र भी वही बन गया । अतः जहाँ भी जाते, वहीं भोली-भाली जनता को उसकी वाणी में जीवन का मूल्य समझाते और आभिजात्य वर्ग को उसके कर्तव्यों का बोध कराते थे। "कौन जानता है, कि आज के तुम्हारे दुर्व्यवहार का फल कब और किस रूप में तुम्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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