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________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणे : २८४ : वह समाज भ्रष्ट, दूषित और गन्दा हो जाता है। यह सड़ान (अशुद्धि) कभी-कभी सारे समाज को ले डबती है। ऐसे गन्दे समाज में सुख-शान्ति के लिए खतरा पैदा हो जाता है। सज्जन और सन्त क्या करें ? ऐसी स्थिति में सज्जन और साधु-सन्त क्या करें ? क्या वे उस दूषित होते हुए समाज को उपेक्षा भाव से टुकुर-टुकुर देखते रहें या वहां से भागकर एकान्त जनशून्य स्थान में चले जाएँ अथवा जहाँ हैं, वहीं रहकर समाज को बदलने, शुद्ध करने, उसमें सुधार करने का प्रयत्न करें? या समाज को अपने दुष्कर्मों के उदय के भरोसे छोड़कर किनाराकसी करें ? वास्तव में देखा जाए तो सज्जनों और साधु-सन्तों का कर्तव्य है, उनका विशेष दायित्व भी है कि वे समाज को विकृत होने या अशुद्ध होने से बचाएँ। अगर वे वहां से भागकर या समाज अपने कर्मोदय के भरोसे छोड़कर समाज के प्रति उपेक्षा करते हैं तो उसका परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे वह समाज इतना गन्दा और बुराइयों से परिपूर्ण हो जाएगा। उस समाज में भी ऐसे भयंकर घातक लोग पैदा हो जाएंगे कि साधु-सन्तों को जीना भी दूभर हो जाएगा । उनको धर्मपालन करने में भी पद-पद पर विघ्न-बाधाएँ आएँगी। साधु-सन्त भी कोई आसमान से नहीं उतरते, वे भी गृहस्थसमाज में से ही आते हैं । अगर समाज बिगड़ा हुआ एवं अपराधों का पिटारा होगा तो साधुसन्त भी वैसी ही मनोवृत्ति के प्रायः होंगे। समाज में अगर उद्दण्डता, उच्छृखलता, असात्त्विकता आदि दोष होंगे तो वे ही कुसंस्कार एवं दुर्गुण साधुसमाज में आए बिना न रहेंगे। चारों ओर आग लगी हो, उस समय अपने कमरे में बैठा-बैठा मनुष्य यह विचार करे कि मैं तो सहीसलामत हूँ, यह आग अभी मुझसे बहुत दूर है । बताइए, ऐसा स्वार्थी और लापरवाह मनुष्य कितनी देर तक सुरक्षित रह सकता है ? वह कुछ समय तक भले ही अपने-आपको सुरक्षित समझ ले, किन्तु अधिक समय तक वह वहाँ सुरक्षित नहीं रह सकेगा। आग की लपलपाती हुई ज्वालाएं उसके निकट पहुँच जाएंगी और उसे अपने स्थान से झटपट उठकर उस आग को बुझाने एवं आगे बढ़ने से रोकने के लिए प्रयत्न करना होगा। वह एक मिनट भी यह सोचने के लिए बैठा नहीं रह सकता कि यह आग कहाँ से आई है ? कैसे पैदा हुई ? इस आग को लगाने में किसका हाथ है ? उसने यह आग क्यों लगाई ? आदि । उस समय समझदार आदमी यह सब सोचने के लिए नहीं बैठा रहता । वह दूर से आग को आती देखकर उसे आगे बढ़ने से रोकने का प्रयत्न करेगा । वह सोचता है कि अगर मैंने इस आग को बुझाने में जरा-भी विलम्ब किया या तनिक भी लापरवाही या उपेक्षा की तो थोड़ी ही देर में यह आग मेरे मकान, परिवार, शरीर और सामान को भस्म कर देगी, मेरी शान्ति को जबर्दस्त खतरा पहुँचाएगी, मेरी शारीरिक एवं मानसिक सुख-शान्ति को भी भस्म कर देगी। फिर तो धर्मध्यान मुझसे सैकड़ों कोस दूर भाग जाएगा और मैं आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के झूले में झूलता रहूंगा। यही बात समाज में चारों ओर फूट, वैमनस्य, चोरी, दुर्व्यसन, शिकार, जुआ, कुरूढ़ियों, कुरीतियों और अतिस्वार्थ आदि बुराइयों या विकृतियों की आग लग जाने पर एकान्त में अलगथलग निश्चिन्त होकर बैठे रहने, गैर-जिम्मेवार या लापरवाह बनकर चुपचाप देखते रहने या उस स्थान से दूर भागने का प्रयत्न करने वाले साधु-सन्तों के विषय में कही जा सकती है । समाज में चारों ओर बुराइयों की आग लगी हो, उस समय साधु-सन्त कर्तव्यविहीन या उत्तरदायित्व से रहित होकर क्या महीनों और वर्षों तक यही सोचता रहेगा कि यह बुराई की आग कहाँ से आई ? किस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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