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________________ : २७३ : ज्योतिवाही युगपुरुष श्री चौथमलजी महाराज श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ । को पहचाना और धर्म के माध्यम से समाज सुधार के आन्दोलन को गति देकर धर्म के समाजीकरण की प्रक्रिया तेज की। उनकी प्रेरणा से कई ऐसी लोकोपकारी संस्थायें अस्तित्व में आयीं जिनसे लोक-सेवा और लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ। आज भौतिक पिंड के रूप में मुनिश्री हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी वाणी, उनका प्रखर तेज और प्रेरणाशील व्यक्तित्व हमारी रग-रग में शक्ति, स्फति और उत्साह की चेतना भर रहा है। ऐसे ज्योतिवाही युगपुरुष को उसकी जन्म-शताब्दी पर शत-शत वन्दन-श्रद्धार्चन ! परिचय व सम्पर्क सूत्रहिन्दी एवं जैन साहित्य के प्रमुख विद्वान, समीक्षक तथा लेखक सम्पादक-'जिनवाणी' प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, राज. विश्वविद्यालय, जयपुर सी० २३५ ए० तिलकनगर, जयपुर । पर-भव सुख प्रबन्ध (तर्ज-पनजी मूडे बोल) ले संग खरचीरे-२, परभव की खरची लीधा सरसीरे ॥टेर।। कूड़-कपट कर धन कमाई, जोड़ जमीं में धरसीरे। सुन्दर महल बागने छोड़ी, जाणो पड़सोरे ॥ १॥ आगे धन्धो पाछे धन्धो, धन्धो कर-कर मरसीरे। धर्म सुकृत नहीं करे, परभव कांई करसीरे ॥२॥ राजा वकील बेरिस्टर से, कर मोहब्बत तू संग फिरसीरे । कौन छुड़ावे काल आप जब, घंटी पकड़सीरे ॥ ३ ।। पाँच कोस गामांतर खातिर, खरचीलेई निकलसीरे । नया शहर है दूर, नहीं मनिआर्डर मिलसीरे ।। ४ ।। यौवन की थने छाक चढ़ी, बुढ़ापो आयां उतरसीरे । इस तन की तो होगी खाक, कहाँ तक निरखसोरे ।। ५ ।। घर की नारी हाँडी फोडने. पाली घर में वरसीरे। मसाण भूमि में छोड़ थने, फिर कुटुम्ब बिछड़सीरे ॥ ६ ॥ लख चौरासी की घाटी करड़ी कैसे पार उतरसीरे।। रत्ती सीख नहीं लागे थारी छाती बजरसीरे ।। ७ ।। साल गुण्यासी हातोद में, जिनवाणी जोर से बरसीरे । गुरु प्रसाद चौथमल कहे, किया धर्म सुधरसीरे ।। ८ ।। -जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज 20-0--0--0--0--0--0--0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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