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________________ : २७१ : ज्योतिवाही युगपुरुष श्री : चौथमलजी महाराज श्री जैन दिवाकर स्मति-ग्रन्थ ज्योतिवाही युगपुरुष : श्री चौथमलजी महाराज * डॉ० नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी-एच ० डी० जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज साहब का स्मरण करते ही मानस-पटल पर एक ऐसे दिव्य व्यक्तित्व का चित्र अंकित होता है जिसके मस्तिष्क में ज्ञान का अगाध समुद्र हिलोरें ले रहा हो, जिसके हृदय से अनुभव-सूर्य की अनन्त किरणें फुट रही हों, जिसके हाथों में गतानुगतिक समय-प्रवाह को रोकने की क्षमता हो, जिसके पैरों में पहलवान की सी मस्तानी चाल हो जिसके कण्ठ से उदात्तवाणी फूटती हो। सचमुच, इस दिवाकर ने बाह्य जगत् के अन्धकार को ही नहीं मिटाया वरन अन्तर्जगत् में छाये निबिड़ अन्धकार को भी तहस-नहस कर, ऊर्ध्वगामी चेतना का आलोक जन-जन में बिखेर दिया । मुझे अपने बचपन की एक धुंधली स्मृति स्मरण आ रही है। कानोड़ के गांधी चौक में इस उत्तुंग ज्ञान हिमालय से प्रवचन-गंगा फूट रही है। उसके पावन शीतल स्पर्श से सबका मन आल्हादित है। क्या राजा, क्या रंक, क्या अमीर, क्या गरीब, क्या खटीक, क्या कलाल, क्या मोची, क्या चमार, सब उसकी वाणी के आकर्षण की डोर में खिचे चले आ रहे हैं। व्यक्तित्व का अद्भुत प्रभाव वाणी का बेमिसाल चमत्कर । दूसरी बाल-स्मृति उभरती है आदर्श उत्सव चित्तौड़गढ़ की, जब इस लोक-पुरुष की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती मनाई गयी थी। कानोड़ के विजय जैन पाठशाला के छात्र के रूप में मैंने उस अवसर पर चित्तौड़गढ़ के लाल किले के विशाल प्रांगण में 'महाराणा प्रताप' नाटक में अभिनय किया था ! हजारों लोग इस उत्सव पर सम्मिलित हुए थे, इस युग-पुरुष को वन्दनान्जलि देने । इतने वर्षों के बाद जब आज जैन दिवाकरजी महाराज के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने लगता हूँ, तो अनुभव होता है कि उस महान् व्यक्तित्व के आगे हमारा पैमाना उत्तरोत्तर छोटा पड़ता जाता है। उस अकेले व्यक्तित्व ने जो धार्मिक-सामाजिक क्रांति की, कई लोग और संगठन मिलकर भी उसके समानान्तर आज तक वह क्रान्ति नहीं कर सके हैं। इस महापुरुष का जन्म उस समय हुआ जब आर्य समाज अपने अस्तित्व को आकार दे रहा था और राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के पूर्व की उथल-पुथल जोरों पर थी। क्रान्तिद्रष्टा इस संत ने आध्यात्मिकता और सामाजिकता के बीच पड़ी खाई को समझा, उसे देखा और पाटने का प्रयत्न किया। मुनि श्री चौथमलजी महाराज ने अपने चारों ओर सम्प्रदाय की, वर्णभेद की हदबंदी की रेखायें खिची हुई देखीं। उनका मन तड़फ उठा। उन्होंने जैनधर्म को जन-जन का धर्म बनाने का संकल्प किया और अपनी वाणी में आत्म-विश्वास और तप-त्याग का ऐसा तेज भरा कि ऊंची से ऊंची श्रेणी के राजा-महाराजा और निम्न से निम्न श्रेणी में भंगी, चमार समान आकर्षण और आदरभाव से उनकी तरफ खिचते चले आये। इस प्रकार उन्होंने जीवन शुद्धि और धर्म-क्रान्ति का प्रवर्तन किया। संक्षेप में उनकी धर्म-क्रान्ति के तीन मुख्य सूत्र हैं :(१) जैन तत्त्वों का सरलीकरण । (२) जीवन का शुद्धिकरण । (३) धर्म का समाजीकरण । (१) जैन तत्त्वों का सरलीकरण-मुनिश्री ने देखा कि जैन धर्म के जो तत्त्व जीवन में क्रान्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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