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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २४२ : Jain Education International अनुकरणीय आदर्श : शतशः नमन * आचार्य राजकुमार जैन एम० ए० ( हिन्दी-संस्कृत) एच० पी० ए०, दर्शनायुर्वेदाचार्य साहित्यायुर्वेद शास्त्री, साहित्यायुर्वेद रत्न टेक्नीकल आफीसर (आयुर्वेद) भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद, दिल्ली प्रातः स्मरणीय परम पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज समाज की उन दिव्य विभूतियों में से है जिन्होंने आत्महित चिन्तन के साथ-साथ परहित की भावना से समाज को बहुत कुछ दिया है । वे करुणापुंज और दया के सागर थे । उनका हृदय विशाल और लोक-कल्याण की भावना से प्रथा । वे आधुनिक काल के एक ऐसे आध्यात्मिक सन्त थे जिनकी वाणी में गजब का माधुर्य और अद्भुत आकर्षण क्षमता थी । उनके चरित्र में विवेक और व्यवहार का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण था जो अन्यत्र दुर्लभ ही देखने को मिलता है। सहजता और स्वाभाविकता उनके रोमरोम में समाई हुई थी । यही कारण है कि उनके जीवन में, आचरण में या व्यवहार में आडम्बर और कृत्रिमता कहीं देखने को नहीं मिली । आध्यात्मिकता उनकी जीवन संगिनी थी और वे उसमें ही रंगे हुए थे । उन्होंने अपने उपदेशों में केवल उन्हीं बातों को कहा जिनका उन्होंने स्वयं अनुभव किया और अपने आचरण में उतारा। उन्होंने मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता को समझते हुए संसार में नश्वरता के मध्य जीवन की सार्थकता और सफलता के उस केन्द्र बिन्दु को भी समझने का प्रयत्न किया, जिसका प्रतिपादन आप्त वाक्य में निहित है । यही कारण है कि वे समाज में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए सदैव जागृत और तत्पर रहे । वस्तुतः वे न केवल समाज के लिए, अपितु मानवमात्र के एक अनुकरणीय आदर्श थे । उन्होंने समाज को बहुत कुछ दिया है और समाज ने उनके उपदेशों से बहुत कुछ ग्रहण किया है । उनके उपदेशों के द्वारा समाज को जो दिशा निर्देश प्राप्त हुआ है उसके लिए समाज उनका चिरऋणी रहेगा। वे समाज में रहते हुए भी जल में रहने वाले कमल की भांति अलिप्त रहे । मोह और परिग्रह को उन्होंने सदैव त्याज्य मानकर उससे विरत रहे । वे वास्तव में सन्त पुरुष थे, उनकी आत्मा महान् और उच्चतम गुणों के उद्रेक से आपूरित थी । ऐसे तपस्वी साधक को मेरा शतशः नमन है और उनके श्रद्धाचन हेतु विनयपूर्वक कुसुमांजलि अर्पित है । ✡ जैन दिवाकर : दिवाकर का योग * वैद्य श्री अमरचन्द जैन ( बरनाला ) श्री जैन दिवाकरजी की उत्कृष्ट संयम तथा योग-साधना का जादू तो अकथनीय था । बड़े से बड़ा विरोधी आपके समक्ष नतमस्तक हो जाता था । आपके हृदय मन्दिर में चर-अचर जीवों के लिए क्षमा शान्ति की लहर लहरा रही थी । आप इस धरा धाम पर भानु भास्कर की भाँति उदय हुए। उसी तरह साधना-पथ ग्रहण कर चमके, प्रकाश किरणें बिखेरीं । अन्त में भानु भास्कर की भाँति अलोकमय हो गये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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