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________________ :१६५ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम || श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ एक क्रान्तदर्शी युगपुरुष -राजेन्द्र मुनि शास्त्री जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के मैंने दर्शन नहीं किये। उनके स्वर्गवास के चार वर्ष पश्चात् मेरा जन्म हुआ। काश, यदि उस महापुरुष के दर्शन का सौभाग्य मुझे भी मिलता तो कितना अच्छा होता । वे लोग धन्य हैं जिन्होंने उस महापुरुष के दर्शन किये हैं, उनके प्रवचन सुने हैं, उनकी सेवा का लाभ लिया। मैंने श्रद्धय सद्गुरुवर्य राजस्थानकेसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज साहब तथा साहित्य मनीषी श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज से उनके सम्बन्ध में सुना कि जैन दिवाकरजी महाराज एक बहत ही तेजस्वी क्रांतदर्शी युगपुरुष थे। उन्होंने अपने दिव्य प्रभाव से, साधना से, अत्यधिक धर्म की प्रभावना की। ऐसे पुरुष वर्षों के पश्चात् होते हैं । जिनका व्यक्तित्व और कृतित्व इतना निखरा हुआ होता है कि वे जन-मानस का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने सदाचरण से एक ऐसा आदर्श उपस्थित करते हैं जिससे भूले-भटके जीवन-राही सही मार्ग पर चलने लगते हैं। उनकी वाणी में ऐसा अद्भुत तेज होता है कि उसके प्रभाव से जनता दुर्व्यसनों का सहज ही परित्याग कर देती है और ऐसा पवित्र जीवन जीने लगती है कि जिसे देखकर सहज ही आश्चर्य होता है। मैंने सुना और पढ़ा है कि श्री दिवाकरजी महाराज के सम्पर्क को पाकर पतित से पतित व्यक्ति भी पावन बन गया; हिंसक व्यक्तियों ने हिंसा का परित्याग कर दिया और वे अहिंसक जीवन जीने लगे। शराबियों ने शराब पीना छोड़ दिया, वेश्याओं ने अपना अनैतिक व्यापार बन्द कर दिया तथा ठाकुर, राजा और महाराजाओं ने शिकार आदि खेलना बन्द कर दिया। यह थी उनकी वाणी की अद्भुत शक्ति । आज भी राजस्थान और मध्य प्रदेश के किसी भी ग्राम में चले जाये तो वहाँ पर आपको सहज रूप से लोगों के मानस में जैन दिवाकरजी के प्रति जो गहरी निष्ठा है वह सुनने को मिलेगी । काल का प्रवाह भी उनकी स्मतियों को धुंधली नहीं कर सका है। मुझे अपार प्रसन्नता है कि स्मृति-ग्रन्थ के माध्यम से मुझे भी उस सन्तरत्न के चरणों में अपने श्रद्धा के सुमन समर्पित करने का पवित्र प्रसंग प्राप्त हुआ है। मैं अपनी अनन्त श्रद्धा उनके चरणों में समर्पित करता हूँ। महायोगी को वंदन ! -श्री टेकचन्दजी महाराज, (चण्डीगढ़) श्री चौथमलजी महाराज उस राजतन्त्र के युग में पैदा हुए जो पर्दानशीनी और घुटन का युग था। रजवाड़ा शक्ति का बोलबाला था। उस वक्त शाही महलों में, राजभवनों में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था। यही श्रीचौथमलजी महाराज का पुण्य प्रभाव था जो गुजरात में पालमपुर के नबाब, मेवाड़ में उदयपुर नरेश महाराणा फतहसिंह के राजभवन में प्रवेश किया और विलासों में डूबे राजा-रानियों को भगवान महावीर की वाणी का सन्देश सुनाया। उन्होंने गरीबों की झोंपड़ियों से लेकर राजमहलों तक अहिंसा की ज्योति फैलायी। उस महान योगी महापुरुष के चरणों में कोटि-कोटि वंदन ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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