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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ ।। एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : १०४ : "मनुष्य जैसे आर्थिक स्थिति की समीक्षा करता है, उसी प्रकार उसे अपने जीवन-व्यवहार की भी समीक्षा करनी चाहिए। प्रत्येक को सोचना चाहिए कि मेरा जीवन कैसा होना चाहिए ? वर्तमान में कैसा है ? उसमें जो कमी है, उसे दूर कैसे किया जाए ? यदि यह कमी दूर न की गयी तो क्या परिणाम होगा? इस प्रकार जीवन की सही-सही आलोचना करने से आपको अपनी बुराई-भलाई का स्पष्ट पता चलेगा । आपके जीवन का सही चित्र आपके सामने उपस्थित रहेगा। आप अपने को समझ सकेंगे। ब्यावर, ८ सितम्बर १९४१ -मुनिश्री चौथमलजी महाराज "बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो प्रत्येक विषय पर तर्कवितर्क करने को तैयार रहते हैं और उनकी बातों से ज्ञात होता है कि वे विविध विषयों के वेत्ता हैं, मगर आश्चर्य यह देखकर होता है कि अपने आन्तरिक जीवन के सम्बन्ध में वे एकदम अनभिज्ञ हैं । वे 'दिया-तले अंधेरा' की कहावत चरितार्थ करते हैं। आँख दूसरों को देखती है, अपने-आपको नहीं देखती। इसी प्रकार वे लोग भी सारी सृष्टि के रहस्यों पर तो बहस कर सकते हैं, मगर अपने को नहीं जानते। ब्यावर, ८ सितम्बर १६४१ -मुनिश्री चौथमलजी महाराज 'जहाँ झूठ का वास होता है, वहाँ सत्य नहीं रह सकता। जैसे रात्रि के साथ सूरज नहीं रह सकता और सूरज के साथ रात नहीं रह सकती, उसीप्रकार सत्य के साथ झूठ और झूठ के साथ सत्य का निर्वाह नहीं हो सकता । एक म्यान में दो तलवारें कैसे समा सकती हैं ? इसी प्रकार जहाँ सत्य का तिरस्कार होगा, वहाँ झूठ का प्रसार होगा। -मुनिश्री चौथमलजी महाराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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