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________________ ॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।। एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : १००: मील की बात सुनकर मुनिगण माव-विह्वल हो गए। इतना ही अन्तर है गगन में चमकने वाले दिवाकर और धर्मरूपी प्रकाश फैलाने वाले जैन दिवाकरजी महाराज में । गगन दिवाकर के अस्त होने पर चारों ओर अन्धकार फैल जाता है; लेकिन जैन दिवाकरजी महाराज के स्वर्गगमन के पश्चात् भी लोगों के हृदय में अन्धकार प्रवेश नहीं कर सका; जो शुभ संस्कार उस ज्ञान के प्रकाश पुंज ने लोगों के हृदय में भरे वे दमकते रहे, चमकते रहे। शास्त्रीय शब्दों में व्यक्त करें तो हमारी भावना है-- इहं सि उत्तमो भन्ते, पच्छा होहिसि उत्तमो। लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिविं गच्छसि नीरओ ॥ -पूज्यवर ! इस लोक में आपका जीवन उत्तम है, परलोक में भी आपका जीवन उत्तम रहेगा और जो उत्तमोत्तम स्थान मोक्ष है, वहां भी आप कर्मरहित होकर जायेंगे। ------- ----- दिवाकरोऽयम् दिव्याकरो द्युतियुतोऽपि दिवाकरोऽयम् । भव्याकरो विजित ज्ञान निशाकरोऽयम् ।। शिक्षाकरो हिमविचार सुधाकरो यम् । विद्याधरो नरवरोऽपि दिवाकरोऽयम् । व्याख्यान-ज्ञान-जगतामधिकार स्वामी । व्याख्यान-कोश-परितोष सुधारनामी ।। दिव्याकरो रुचिकरोऽत्र चतुर्थमल्लः । सत्यार्थ-ध्यान-चरितार्थ विकासमल्लः ।। -श्रीधर शास्त्री -o-or-o--------S Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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