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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ । एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ८६ : इस घटना से स्पष्ट हो जाता है कि गुरुदेव से प्रतिज्ञा लेने वाले व्यक्ति अपनी प्रतिज्ञा में कितने दृढ़ रहते थे। ब्यावर चातुर्मास पूर्ण कर आप वहाँ से विहार करके सुमेल पधारे । सुमेल के ठाकुर साहब ने रनिवास सहित व्याख्यान श्रवण का लाभ लिया। प्रवचन से प्रभावित होकर पार्श्वनाथ जयन्ती, महावीर जयन्ती को अगता रखने के और पौष, कार्तिक, वैशाख आदि महीनों में शिकार न खेलने की लिखित प्रतिज्ञा ली। __सुमेल से जैन दिवाकरजी मसूदा होते हए अरनिया पधारे। वहां बलिदान बन्द हुआ। कोटड़ी के कई मुसलमान भाइयों को मांस खाने का त्याग करवाकर मांडलगढ़ पधारे। वहाँ कई वर्षों से चले आए वैमनस्य को दूर किया । शाहपुरा में अनेकों ने मांस-मदिरा के त्याग किये । मीचोर में कई मुसलमान भाइयों ने नशा व गोश्त (मांस) खाने के त्याग किए। वेग में आपश्री के उपदेश से ओसवालों का वैमनस्य दूर हुआ। फिर कदवासा पधारे । वहाँ ३७ जमींदारों ने जैनधर्म स्वीकार किया। अनेक गांवों में विचरण करते हुए २५ सन्तों सहित सिंगोली पधारे। महावीर जयन्ती बड़े समारोह के साथ मनाई गई। पारसोली, सरवाणिया, नन्दवई, वेग, सिंगोली आदि के राज्याधिकारियों ने लाभ लिया। सिंगोली में ५ दिन अगता पलवाया गया। नीमच सावण होते हुए भाटखेड़ी पधारे । वहाँ की महारानी श्रीमती नवनिधि कुमारी के अत्याग्रह से तीन व्याख्यान राजमहल में हए। महारानीजी ने प्रभावना बांटी। महारानीजी विदषी थीं । आपने ३००० पृष्ठ का एक ग्रन्थ लिखा था। उनकी जैनधर्म पर अटूट श्रद्धा है। मुहपत्ति बांधकर ७ बार भगवतीसूत्र पढ़ चुकी हैं। अन्य अनेक शास्त्रों एवं ग्रन्थों का अध्ययन किया है। आप बड़ी दया-प्रेमी हैं। रामपुरा, संजीत आदि गांवों को पावन करते हए महागढ़ पधारे। वहाँ आपकी वाणी से प्रभावित होकर कई लोगों ने रात्रि-भोजन के त्याग किए, ब्रह्मचर्यव्रत लिए। राजपूत, गावरी, चमार आदि ने मांस-मदिरा के त्याग किए। जावरा में २६ सन्तों सहित आप पधारे तो लोगों ने आपका भावभीना स्वागत किया। यहां स्थानकवासी समाज में झगड़ा था। अनेक सन्तों एवं मुनिवरों के समझाने पर भी वह झगड़ा मिट न सका, किन्तु आपके प्रभाव से शांत हो गया। व्याख्यान में चीफ मिनिस्टर, रेवेन्यु सेक्रेटरी, पुलिस अधिकारी आदि लाभ लेते थे। सेजावता के ठाकुर साहब ने जीवनभर शिकार करने का त्याग किया। सैंतालीसवां चातुर्मास (सं० १९९E): मन्दसौर वि० सं०१६EE में आपश्री विचरण करते हुए रतलाम पधारे। महावीर जयन्ती का दिन समीप था। पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज के संप्रदाय वाले प० मुनिश्री किशनलालजी महाराज, मालवकेशरी पं० मुनि श्री सौभाग्यमलजी महाराज आदि भी वहीं विराजमान थे। विचार चला कि महावीर जयन्ती सम्मिलित रूप से मनाई जाय या अलग-अलग । जैन दिवाकरजी महाराज ने कहा "भगवान महावीर के जन्म दिवस पर क्या मतभेद ? वे तो सभी के आराध्य हैं। उनका जन्म-दिवस तो सभी को मिलकर मनाना चाहिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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