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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन :५०: स्थानकवासी साधु का पदार्पण हुआ था, अत: स्वागत फीका ही रहा। लेकिन आपके व्याख्यानों ने ऐसी धूम मचाई कि लोग वहीं चातुर्मास करने की प्रार्थना करने लगे, लेकिन कानपुर चातुर्मास निश्चित हो जाने के कारण उनकी प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई। - लखनऊ में प्रवेश करते समय तो आपका स्वागत साधारण रहा था, लेकिन विदाई के समय अपार जनसमूह जयघोष कर रहा था । काफी दूर तक लोग आपको पहुँचाने आए थे। विष-निविष हुआ वर्षावास हेतु आपके चरण कानपुर की ओर बढ़ रहे थे। मार्ग में मूनि संघ को रात्रि विश्रा मार्थ रुकना पड़ा। अचानक समीप के देवी मन्दिर में करुण-क्रन्दन सुनाई दिया। पूछने पर मालूम हुआ कि 'खेत में काम करते हुए एक युवक किसान को किसी भयंकर सर्प ने डस लिया है। उसे माता के मन्दिर में लाए हैं। लेकिन पुजारी ने देखते ही उसे मृत घोषित कर दिया। अब उसके परिवारी जन विलाप कर रहे हैं।' आपके हृदय में करुणा जागी। उस युवक के शरीर को देखने की इच्छा प्रगट की। तुरन्त शरीर वहाँ लाया गया। परिवारीजन कातर स्वर में पुकार करने लगे-'बाबा जिला दो, बाबा जिला दो।' आपने अनुमान लगा लिया कि युवक का शरीर सर्पविष से ग्रस्त होकर निश्चेष्ट हो गया है, लेकिन अभी तक प्राण नहीं निकले हैं । सांत्वना देते हुए कहा "घबड़ाओ मत ! मैं भगवान का नाम सुनाता हूँ, शायद यह ठीक हो जाय । अब तुम सब लोग बिलकुल शांत हो जाओ।" सभी शांत हो गए । गुरुदेव ने तन्मय होकर भक्तामर के ४१वें काव्य का पाठ शुरू किया रक्तक्षणं समद कोकिल कंठनीलं क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तं । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त शंकस् त्वन्नाम नाग-दमनी हृदि यस्य पुसः॥ पाठ चलने लगा। ज्यों-ज्यों पाठ चला युवक के शरीर में चेतना के लक्षण प्रगट होने लगे। युवक ने एक जोरदार वमन किया। सारा विष निकल गया। उसने आँखें खोली और उठकर बैठ गया। लोग गुरुदेव के चरणों में आ गिरे । जय-जयकारों से वातावरण गूज गया । सोने-चांदी की वर्षा होने लगी। आपने गम्भीर स्वर में कहा "हम लोग जैन साधु हैं । कंचन-कामिनी से सदा दूर रहते हैं। आप लोग ये सब माया ले जाइये । हमें यही संतोष है कि युवक के प्राण लौट आये और आप लोगों को शांति मिली।" सभी लोग आपकी इस निस्पृहता से बहुत प्रभावित हुए । आपश्री कानपुर पहुंचे और सं० १६६४ का वर्षावास कानपुर में हुआ । कानपुर में ४० वर्षों के बाद स्थानकवासी जैन मुनि का पधारना हुआ था। लाला फूलचन्द जी ने अपनी धर्मशाला में चातुर्मास कराया। चातुर्मास के पश्चात् आपश्री ने देहली की तरफ प्रस्थान किया। अनेक गांवों-नगरों में होते हए आप मथुरा पधारे । मथुरा नगरी दिगम्बर जैनों का गढ़-सा है। यहाँ अनेकानेक पंडित भी रहते हैं । विश्रान्ति हेतु आप यहाँ ठहरे। दो प्रवचनों की स्वीकृति भी दे दी और शंका-समाधान के लिए समय भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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