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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ । एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ७८ : 'यहाँ पर एक जैन साधु आये हैं । इन्होंने अपनी वाणी के जादू से ब्राह्मणों का झगड़ा मिटा दिया है।' इस चमत्कार से नरेश भी चकित रह गए । तुरन्त तार भेजा-'साधुजी को रोको । उनके दर्शन के लिए मैं आ रहा हूं।' इन्द्रगढ़ नरेश आए । अपनी बागवालो कोठी में प्रवचन कराए । इन्द्रगढ़ नरेश ने महावीर जयन्ती और पार्श्वनाथ जयन्ती के दिन पशुवध बन्द कराने का वचन दिया। इन्द्रगढ़ में ही एक जिज्ञासु ने आकर निवेदन किया "महाराज ! मेरी कुछ शंकाएं हैं। उनके समाधान के लिए अनेक साधु-संतों, दार्शनिकों, विद्वानों के पास मटका है। कहीं भी संतोषजनक समाधान नहीं मिला । कृपा करके आप ही मेरी शंकाओं का समाधान कर दें।" आपश्री ने फरमाया"प्रवचन सुनो, समाधान हो जायगा।" जिज्ञासु ने प्रवचन सुने और उसकी सभी शंकाओं का समाधान हो गया। वास्तव में आपके प्रवचन इतने सारगर्मित होते थे कि जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान स्वतः ही हो जाता था। आप गेंता पधारे तो शासक और जनता सभी ने प्रवचन लाभ लिया। महल में प्रवचन हुआ तो माँ साहिबा, रानी साहिबा आदि सभी ने प्रवचन सुना। गेंता सरदार श्री तेजसिंहजी और उनके छोटे भाई यशवन्तसिंहजी ने मदिरा का त्याग किया। महावीर जयन्ती तथा पार्श्वनाथ जयन्ती के दिन अगता पलवाने का पट्टा दिया। २६ फरवरी, १९३६ को जन दिवाकर जी महाराज उणियारा पधारे । सार्वजनिक प्रवचन हुए। लोगों ने कन्या विक्रय का त्याग तो किया ही, साथ ही कन्या विक्रय करने वाले के यहाँ भोजन करने का भी त्याग किया। अनेक ने परस्त्रीगमन तथा तम्बाकू आदि नशीली वस्तुओं का त्याग किया । उणियारा नरेश ने उद्गार व्यक्त किए-'हमारा सौभाग्य है कि आपश्री के दर्शन हुए। आपको जैनधर्म के तत्त्वज्ञान का विशद अध्ययन है। आप उसी पर उपदेश फरमावें ।' आपश्री ने तत्त्वज्ञान पर ही दो घंटे तक प्रवचन फरमाया। प्रभावित होकर नरेश ने महावीर जयन्ती और पार्श्वनाथ जयन्ती के दिन अगते पलवाने का वचन दिया। ७ मार्च १९३६ को आप बणजारी पधारे। प्रवचन सुनने बेडोला के ठाकुर संग्रामसिंहजी भी उपस्थित हए। ठाकुर साहब ने स्वयं शिकार न खेलने और राज्य-भर में प्रत्येक अमावस्या, महावीर जयन्ती, पार्श्वनाथ जयन्ती के दिन अगता पलवाने की प्रतिज्ञा ली। टेकले के मार्ग में एकड़ा के ठाकूर साहब मोहनसिंह जी मिले। उन्होंने वहीं चैत्र सुदी १३, पौष बदी १०, पर्युषण के आठ दिन और बैसाख के महीने में अगता रखने तथा शिकार न खेलने की प्रतिज्ञा ली। उनके कामदार कर्णसिंहजी ने आजीवन हिंसा का त्याग कर दिया। वाष्प-शक्ति पर आत्मबल का प्रभाव आपश्री के चरण आगरा की ओर बढ़ रहे थे। साथ में अनेक श्रद्धालु भी थे। रास्ता बड़ा ऊबड़-खाबड़ और कंकरीला-पथरीला था। मालूम हुआ कि आगे सड़क पर पानी भरा हुआ है। रेलवे लाइन के बगल से सभी चले लेकिन पत्थर पांवों में शूल की तरह गड़गड़ जाते । पर आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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