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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ एक पारस पुरुष का गरिमामय जीवन : ७६ : हृदय रोग का आध्यात्मिक उपचार एक बार प्रवचन में अलवर निवासी डा० राधेश्याम जी भी उपस्थित थे । प्रवचन समाप्त होने पर भाव-भरे कंठ से कहने लगे स्वयं भी डाक्टर हूँ इसलिए ग्यारह बजे से दो बजे तक मँगवाईं लेकिन सब रात को मुझे स्वप्न में " उपस्थित सज्जनो ! मैं 8 वर्ष से हृदय रोग से पीड़ित था । चिकित्सा में कोई कमी न रखी। फिर भी कोई लाभ न हुआ । रात के निश्चेष्ट पड़ा रहता था । अलवर महाराज ने भी बहुत-सी विदेशी दवाइयाँ बेकार | मरने का विचार किया लेकिन उसी रात ६ फरवरी, १९३४ की ऐसा लगा, जैसे कोई कह रहा था - 'क्यों व्यर्थ ही इधर-उधर भटकता है ? कुछ नहीं होगा । जैन मुनि चौथमलजी महाराज की शरण में जा । बीमारी का नाम निशान भी न रहेगा ।' प्रातः होते ही मैंने महाराजश्री का पता पूछा और चित्तौड़गढ़ जा पहुँचा | दर्शनमात्र से ही मैं नीरोग हो गया और अब पूर्ण स्वस्थ हूँ । आप लोगों का सौभाग्य है जो बार-बार आपको महाराजश्री के दर्शन प्राप्त होते हैं।" ऐसे ही दिव्य प्रभावों के लिए एक कवि ने कहा है कहने की जरूरत इस दर पे तेरा नहीं आना ही बहुत है। शीश झुकाना ही बहुत है ॥ साहित्य-रचना कब ? जैन दिवाकरजी महाराज की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे जितने कुशल वक्ता थे उतने ही सिद्धहस्त रचनाकार | गद्य-पद्य दोनों में उनकी समान गति थी । उदयपुर के श्रावकों को उनकी बहुमुखी प्रतिभा को देखकर बहुत आश्चर्य था । एक दिन वे पूछ ही बैठे Jain Education International "गुरुदेव ! दिनभर तो आप श्रद्धालु भक्तों से घिरे रहते हैं, जन जन के कल्याण के उपदेश फरमाते हैं, धार्मिक क्रियाएँ भी करते हैं । फिर आपको समय ही कब मिलता है, जो साहित्यसर्जना कर लेते हैं । " गुरुदेव ने श्रद्धालु भक्तों की भावना को समझा । उत्सुकता शान्त करते हुए बोले "लोग श्रद्धा-भक्ति और स्नेह से प्रेरित होकर मेरे पास आते हैं, उन्हें निराश करना क्या उचित ? श्रद्धालुओं की शंकाओं का उचित समाधान भी श्रमण जीवन का एक अंग है । रही साहित्य-सर्जना की बात; सो मैं अपने आराम में कटौती कर लेता हूँ ।" "कटौती कब कर लेते हैं, गुरुदेव !” " निद्रा कम लेता हूँ । रात्रि में भी चिन्तन में समय देता हूँ । जो विचार आते हैं उन्हें मस्तिष्क में केन्द्रित कर लेता हूँ और फिर दिन के किसी समय कागज पर उतार देता हूँ ।" जैन दिवाकर जी महाराज के समय के सदुपयोग को जानकर श्रद्धालु भाव विभोर हो गये । एक दिन उदयपुर के महाराणा श्री भूपालसिंह जी शिकार खेलने जयसमुन्द गये । वहाँ एक बड़ा भारी सांभर दरबार के सम्मुख आया । पास वालों ने कहा - ' शिकार कीजिए । दरबार ने सांकेतिक स्थान पर सांभर के आने पर और श्री गिरधारीलाल जी से बोले - ' चौथमल जी जीव को अभयदान दिया है ।' बन्दूक उठाई किन्तु तुरन्त ही बन्दूक रख दी महाराज को सूचित कर देना कि मैंने इस चालीस चातुर्मास (सं० १६६२ ) : कोटा उदयपुर चातुर्मास पूर्ण कर आप मन्दसौर पधारे। वहाँ पूज्यश्री खूबचन्द जी महाराज के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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