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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ की व्यवस्था की । वहाँ सभी जातियों के भाई आते और प्रवचन लाभ लेते। लोग दूर-दूर उपनगरों से भी आते। पर्युषण के दिनों में तो त्याग तपस्याएं खूब हुई। ७ वर्ष के बाद बम्बई संघ की गुरुदेव के चातुर्मास कराने की इच्छा पूर्ण हुई थी । बम्बई के लोगों में भारी उत्साह था। तपस्वी श्री मयाचन्दजी महाराज ने अभिग्रह सहित ३४ दिन की तपस्या की । उस अवसर पर भी बहुत धर्मध्यान हुआ । बहुत से जीवों को अभयदान और हजारों केकड़ों को जीवनदान मिला। जैन संघ ने एक निवेदन किया था - 'बम्बई में रहने वाले प्रत्येक बहन-भाई विद्वान् मुनिश्री की अमृतवाणी का लाभ लेकर आत्मकल्याण करे।' : ७१ उदय धर्म- दिवाकर का बम्बई के सुप्रसिद्ध जौहरी सूरजमल लल्लुभाई आपके दर्शनार्थं प्रतिदिन आते थे। एक दिन उनके साथ बौद्ध धर्म के अग्रगण्य विद्वान् नाइडकर भी आए । आपसे धर्मचर्चा करके बहुत प्रभादित हुए। इसी प्रकार गुजरात में भिक्षुराज के नाम से प्रसिद्ध प्रखर देशभक्त माणिकलाल कोठारी ने भी आपका प्रवचन सुना और मूरि-भूरि प्रशंसा की। देशभक्त वीर नरीमान ने भी आपके दर्शन का लाभ लिया । १५ नवम्बर, १९३१ को आपका प्रवचन लेमिंग्टन सिनेमागृह में हुआ - विषय था 'मानव कर्तव्य' । प्रवचन- समाप्ति पर प्रसिद्ध विद्वान् पं० लालन ने अपने उद्गार व्यक्त किये - 'महाराजश्री का प्रवचन सुनकर में हर्ष से भर गया हूँ आपभी अपने आपको भगवान महवीर का चौकीदार मानते हैं लेकिन वास्तव में ये भगवान के वायसराय हैं।' युवा जिज्ञासा प्रौढ़ समाधान एक दिन कुछ युवक कांदावाड़ी स्थानक में आये। उनका आगमन ही उनकी आध्यात्मिक विषयों की ओर रुचि का परिचायक था। नमन-वन्दन करके बैठ गए। वे कई बार आपका प्रवचन सुन चुके थे और प्रभावित हो चुके थे । उन युवकों ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा "महाराज साहब ! आपकी वक्तृत्व शैली बड़ी प्रभावशालिनी है। सुनने वालों में आत्म स्फुरणा जागृत होती है । लेकिन आप लोगों का अधिकांश समय तो पदयात्रा में ही चला जाता है । यदि जैन सन्त वाहनों का उपयोग करें तो बहुत लोगों का कल्याण हो सकता है, फिर आप लोग वाहनों का प्रयोग क्यों नहीं करते ?" महाराजश्री युवकों की बात सुनकर प्रसन्न मुद्रा में उन्हें मर्यादा का महत्व समझाते हुए बोले ――――――― "यह जैन श्रमणों की मर्यादा है । मर्यादा का पालन करना आवश्यक है । जिस प्रकार मर्यादा में तट-सीमा में बहती हुई नदी जन-जन का कल्याण करती है और मर्यादाहीन होकर भयंकर विनाश कर देती है, उसी प्रकार साधु-जीवन भी है । मर्यादा-सूत्र में बँधी पतंग आकाश में उड़ती है और सूत्र टूटते ही जमीन पर गिर जाती है, उसी प्रकार मर्यादाहीन साधु भी अपने उच्च स्थान पर नहीं रहता । " वाहनों के प्रयोग न करने से अन्य भी लाभ है कि भारत गाँवों का देश है वहाँ सब जगह वाहून नहीं पहुंच पाते। अतः पदयात्रा से ही अधिक जन कल्याण संभव है। फिर तीव्रगति से चलने वाले वाहनों द्वारा हिंसा की बहुत सम्भावना रहती है । अनेक जीव पहियों के नीचे दबकर मर जाते हैं । गाय, भैंस आदि बड़े पशु भी टकरा जाते हैं, वायुकाय के जीवों की तो अत्यधिक हिंसा होती ही है । इसीलिए महाव्रती श्रमण वाहनों का प्रयोग नहीं करते। यह श्रमण संघ की मर्यादा और तीर्थकर प्रभु की आज्ञा है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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