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________________ [ ७२ । माधुरी को वृद्धिगत करने में सहायक हुई है। फिञ्च पित्रोः सुखायेव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । वनितयाऽनितया रमणं कयाऽप्यमलया मलयाचलमारुतः। सदा सिन्धोः प्रमोदाय चन्द्रो व्योमावगाहते ॥ ३४ धुत-लता-तल-तामरसोऽधिको नहि मतो हिमतो विषतोऽपिन॥ शरवर्णन में मदमत्त वृषभ के आचरण की पुष्टि एक सामान्य उक्ति से करते हए अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया नेमिनाथमहाकाव्य में श्लोकाध्यमक को भी विस्तृत गया है । स्थान मिला है, किन्तु कीतिराज के यमक की विशेषता मदोत्कटा विदार्य भूतलं वृषाक्षिपन्ति यत्र मतस्के रजो निजे । यह है कि वह सर्वत्र दुरूहता तथा क्लिष्टता से मुक्त है। अयुक्त-युक्त-कृत्य-संविचारणां विदन्ति किं कदा मदान्धबुद्धयः पुण्य ! कोपचयदं नतावकं पुण्यकोपचयदं न तावकम् । ॥३॥४४ दर्शनं जिनप ! यावदीक्ष्यते तावदेव गददुःस्थतादिकम् ॥१२॥३३ जिनेश्वर की लोकोत्तर विलक्षणता का चित्रण करते अर्थालंकारों का प्रयोग भी भावाभिव्यक्ति को सघन समय कवि की कल्पना अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट बनाने के लिये किया गया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, हुई है । रूपक, अर्थान्तरन्यास, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, उल्लेख यद्यर्कदुग्धं शुचिगोरसस्य प्राप्नोति साम्यं च विषं सुधायाः । आदि की विवेकपूर्ण योजना से काव्य में अद्भुत भाव देवान्तरं देव ! तदा त्वदीयां तुल्या दधाति त्रिजगत्प्रदीपः ॥ प्रेषणीयता आ गयी है। जिनेश्वर के स्नात्रोत्सव के ६।३५ प्रसंग में मूर्त की अमूर्त से उपमा का सुन्दर प्रयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त परिसंख्या, वक्रोक्ति, विरोधाभास, देवता अथ शिवां सनन्दनां निन्यिरे धनददिनिकेतनम्। सन्देह, असंगति, विषम, सहोक्ति, निदर्शना, पर्यायोक्ति, धर्मशास्त्रसहितां मतिं गिरः सद्गुरोरिव विनेयमानसम् ॥ व्यतिरेक, विभावना आदि अलंकार नेमिनाथ काव्य के ४॥४८ सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं। इनमें से कुछ के उदाहरण यहां प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा की मामिक अवतारणा हुई है। दिये जाते हैं । पवमानचञ्चलदलं जलाशये रवितेजसा स्फुटदिदं पयोरुहम्। परिसंख्या- न मन्दोऽत्र जनः कोऽपि परं मन्दो यदि ग्रहः । परिशंक्य ते बत मया तवाननात कमलाक्षि ! बिभ्यदिव वियोगो नापि दम्पत्यो वियोगस्तु परं वने ॥१।१७ कम्पतेतराम् ।। १२।६ सन्देह- पिशङ्गवासाः किमयं नारायणः ? रूपक का सफल प्रयोग निम्नोक्त पंक्तियों में दृष्टिगत सुवर्णकाय: किमयं विहङ्गम: ? होता है। सविस्मयं तर्कितमेवमादित: रात्रि-स्त्रिया मुग्धतया तमोऽञ्जनै सिंहं स्फुरत्काञ्चनचारुकेसरम् ? २५ दिग्धानि काष्ठातनयामुखान्यथ । वक्रोक्ति- देवः प्रिये ! को वृषभोऽयि ! किं गौः ? प्रक्षालयत्पूषमयूखपायसा नैवं वृषांक: ? किमु शंकरो ? न । देव्या विभातं ददृशे स्वतातवत् ॥ २॥३० जिनो तु चक्री ति वधूवराभ्यां कृष्णपत्नियां नेमिनाथ को जिन युक्तियों से वैवाहिक यो वक्रमुक्तः स मुदे जिनेन्द्रः ।।३।१२ जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं, उनमें, एक असंगति -- गन्धसार-धनसार-विलेपं स्थान पर, दृष्टान्त की भावपूर्ण योजना हुई है। कन्यका विदधिरेऽथ तदंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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