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________________ रसविमुक्त विलोलपयोधरा हसितकाशलसत्पलितांकिता। ह्रासकालीन महाकाव्य-प्रवृत्ति के अनुसार कीतिराज क्षरित-पवित्रम शालिकण द्विजा जयति कापि शरजरती क्षितौ। ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का भी वर्णन अपने काव्य में किया ८।४३ है। उद्दीपन रूप में प्रकृति मानव की भावनाओं को उद्वेलित . पावस में दामिनी की दमक, वर्षा की अविराम फुहार करती है । प्रस्तुत पंक्तियों में स्मरपट हसदृश धनगर्जना तथा शीतल बयार मादक वातावरण की सष्टि करती हैं। को विलासी जनों की कामाग्नि को प्रदीप्त करते हए पवन झकोरे खाकर मेघमाला, मधुरमन्द्र गर्जना करतो हुई चित्रित किया गया है जिससे वे रणशूर कामरण में पराजित गगनांगन में घूमती फिरती है। वर्षाकाल के इस सहज होकर प्राणवल्लभाओं की मनुहार करने में प्रवृत्त हो दृश्य को काव्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। उपमा जाते हैं। के प्रयोग ने भावाभिव्यक्ति को समर्थता प्रदान की है। स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् क्षरदभ्रजला कलगजिता सचपला चपलानिलनोदिता। निनदतोऽथ निशम्य विलासिनः । दिव चचाल नवाम्बुदमण्डली गजघटेव मनोभवभूपतेः ॥८।३८ समदना न्यपतन्नवकामिनीनेमिनाथमहाकाव्य में पशृप्रकृति के भी अभिराम चित्र चरणयो रणयोगविदोऽपि हि ॥ ८॥३७ प्रस्तुत किये गये हैं। ये एक ओर कवि की सूक्ष्म निरीक्षण उद्दीपन पक्ष के इस वर्णन में प्रकृति पृष्ठभूमि में चली शक्ति के साक्षी हैं और दूसरी ओर उसके पशजगत की गया है और प्रेमी युगलों का भोग-विलास प्रमुख हो चेष्टाओं के गहन अध्ययन को व्यक्त करते हैं। हाथी का गया है, किन्तु परम्परा से ऐसे वर्णनों की गणना उद्दीपन यह स्वभाव है कि वह रात भर गहरी नींद सोता है। के अन्तर्गत ही की जाती है। प्रात:काल जागकर भी वह अलसाई आँखों को मस्ती से प्रियकरः कठिनस्तनकुम्भयोः प्रियकरः सरसातवपल्लव:। मदे पड़े रहता है किन्तु बार-बार करवटें बदल कर पाद प्रियतमा समबीजयदाकुलां नवरतां वरतान्तलतागृहे ।। शृखला से शब्द करता है जिससे उसके जगने की सूचना ८१२३ गजपालों को मिल जाती है। निम्नोक्त स्वभावोक्ति में नेमिनाथ काव्य में प्रकृति का मानवीकरण भी हुआ यह गजप्रकृति साकार हो उठी है । है। प्रकृति पर मानवीय भावनाओं तथा कार्यकलापों का निद्रासुखं समनुभूय चिराय रात्रा. आरोप करने से वह मानव की भाँति आचरण करती है। वुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम्। प्रातःकाल सूर्य के उदित होते ही कमलिनी विकसित हो प्राप्य प्रबोधमपि देव ! गजेन्द्र एष जाती है और भ्रमरगण उसका रसपान करने लगते हैं इसका ___ नोन्मीलयत्यलसनेत्रयुगं मदान्धः ।। २।५४ चित्रण कवि ने सूर्य पर नायक, कमलिनी में नायिका तथा व्याध के मधुरगोत के वशीभूत होकर, अपनी प्रियाओं भ्रमरगण पर परपुरुष का आरोप करके किया है । अपनो के साथ वन में चौकड़ी भरते हए हरिणों का हृदयनाही प्रेयसी को पर पुरुषों से चुम्बित देख कर सूर्य क्रोध से चित्र इस प्रकार अङ्कित किया गया है। लाल हो जाता है तथा कठोर पादप्रहार से उस व्यभिकलगीतिनादरसरङ्गवे दिनो हरिणा अमी हरिणलोचने वने। चारिणी को दण्डित करता है। सह कामिनीभिरलमुत्पतन्ति हे. परिपीतवातपरिणोदिता इव ॥ यत्र भ्रमद्ममरचुम्बितानना १२।११ मवेक्ष्य कोपादिव मूनि पद्मिनीम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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