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________________ प्रवेश हो चुका था जिसे परिहार कर क्रियोद्धार करने की साधु-मार्ग से प्रयोजन हो, वे हमारे साथ रहें और जो लोग भावना सभी गच्छनायकों में उत्पन्न हुई। श्रीजिनमाणिक्यसूरि असमर्थ हों, वे वेश त्यागकर गृहस्थ बन जावें । क्योंकि साधुवेश जी महाराज ने भी दादासाहब श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज में अनाचार अक्षम्य है। सूरिजी के प्रबल पुरुषार्थ से ३०० के स्वर्गवास से पवित्र तीर्थरूप देरावर की यात्रा करके यतियों में से सोलह व्यक्ति चन्द्रमा की सोलह कला रूप गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को समूल नष्ट करने का जिनचन्द्रसूरिजी के साथ हो गए । संयम पालन में असमर्थ संकल्प किया परन्तु भवितव्यता वश वे अपने विचारों को अवशिष्ट लोगों को मस्तक पर पगड़ी धारण कराके 'मत्थेरण' कार्य रूप में परिणत न कर सके और वहां से जेसलमेर आते गृहस्थ बनाया गया, जो महात्मा कहलाने लगे और अध्यापन, हए मार्ग में पिपासा परिषह उत्पन्न हो जाने से अनशन लेखन व चित्रकलादि का काम करके अपनी आजीविका स्वीकार कर लिया। सन्ध्या के पश्चात् किसी पथिकादि चलाने लगे। के पास पानी की योगवाई भी मिली पर सूरिमहाराज अपने सूरिजी की क्रान्ति सफल हुई। यह क्रियोद्धार सं० चिरकाल के चौविहार ब्रत को भंग करने के लिए राजी नहीं १६१४ चैत्र कृष्ण ७ को हुआ। बीकानेर चातुर्मास के हुए । उनका स्वर्गवास होने पर जब २४ शिष्य जेसलमेर अनन्तर सं० १६१५ का चातुर्मास महेवानगर में किया और पधारे तो गुरुभक्त रावल मालदेव ने स्वयं आचार्य-पदोत्सव नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्मासी तपाराधन की तैयारियाँ की और तत्र विराजित खरतरगच्छ के बेगङ किया। तप जप के प्रभाव से आ शाखा के प्रभावक आचार्य श्रीगुणप्रभसूरिजी महाराज सित होने लगीं। चातुर्मास के पश्चात् आप गुजरात की से बड़े समारोह के साथ मिती भाद्रपद शुक्ल ६ गुरुवार के राजधानी पाटण पधारे । सं० १६१६ माघ सूदि ११ को दिन सतरह वर्ष की आयु वाले श्री सुमतिधीरजी को आचार्य बीकानेर से निकले हुए यात्री संघ ने, शत्रुञ्जय यात्रा से पद पर प्रतिष्ठित करवाया। गच्छ मर्यादानुसार आपका नाम लौटते हुए पाटण में जंगमतीर्थ-सूरिमहाराज की चरण श्री जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ । उसो रात्रि में गुरु महाराज वन्दना की। श्रीजिनमा णिक्यसूरिजी ने दर्शन देकर समवशरण पुस्तिका उन दिनों गुजरात में खरतरगच्छ का प्रभाव सर्वत्र स्थित स म्नाय सूरि-मन्त्रविधि निर्देश पत्र की ओर संकेत विस्तृत था, पाटण तो खरतर विरुद प्राप्ति का और वसतिकिया। वास प्रकाश का आ सरि महाराज वहां ___ चातुर्मास पूर्ण कर आपश्री बीकानेर पधारे। मंत्री चातुर्मास में विराजमान थे, उन्होंने पोषध विधिप्रकरण पर संग्रामसिंह वच्छावत की प्रबल प्रार्थना थी, अत: संघ के ३५५४ श्लोक परिमित विद्वत्तापूर्ण टीका रची, जिसे उपाश्रय में जहाँ तीन सौ यतिगण विद्यमान थे, चातुर्मास महोपाध्याय पुण्यसागर और वा० साधुकी ति गणि जैसे न कर सूरिजीमंत्रीश्वर की अश्वशाला में ही रहे। उनका विद्वान गोतार्थो ने संशोधित की। युवक हृदय वैराग्यरस से ओत-प्रोत था। उन्होंने महान उस जमाने में तपागच्छ में धर्मसागर उपाध्याय एक चिन्तन-मनन के पश्चात् क्रान्ति का मूल-मंत्र क्रिया-उद्धार कलहप्रिय और विद्वत्ताभिमानी व्यक्ति हुए, जिन्होंने जैन की भावना को कार्यान्वित करना निश्चित किया। समाज में पारस्परिक द्वेष भाव वृद्धि करने वाले कतिपय - मंत्री संग्रामसिंह का इस कार्य में पूर्ण सहयोग रहा, ग्रन्थों की रचना करके शान्ति के समुद्र सदृश जैन समाज सूरि महाराज ने यतिजनों को आज्ञा दी कि जिन्हें शुद्ध में द्वेष-वड़वाग्नि उत्पन्न को। उन्होंने सभी गच्छों के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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