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________________ अनेक ज्ञानभण्डारों के संस्थापक श्रीजिन [पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय ] [ श्री जिनराजसूरिजी के पट्टधर पन्द्रहवीं शताब्दी के महान् ग्रन्थ संरक्षक आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी का जन्म सं० १४४६ चैत्र बदि ( सुदि ) ६ आर्द्रा नक्षत्र में छाजहड़ शाह धीणिग की भार्या खेतलदे की कुक्षि से हुआ था। सं० १४६१ में इनकी दीक्षा हुई । वा० शोलचन्द्रगणि के पास इन्होंने अध्ययन कर श्रुत रहस्य को प्राप्त किया। २५ वर्ष की आयु में सं० १४७५ के माघ सुदि १५ बुधवार को भाणसोली ग्राम में श्री सागरचन्द्राचार्य ने इन्हें गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया । सा० नाल्हा ने बहुत बड़े महोत्सव पूर्वक पदस्थापना करवायी, इन्होंने अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षित किया। भावप्रभाचार्य, कोतिरत्नाचार्य और जयसागरोपाध्याय को आचार्य, उपाध्याय आदि पदों पर प्रतिष्ठित किया। गिरनार, आबू और जैसलमेर में उपदेश देकर जिनमन्दिर प्रतिष्ठित किये। सं० १५१४ मिगसर बदि ६ को कुंभलमेर में आप स्वर्गवासी हुए। इनके पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि को सं० १५१५ के जेठ बदि २ को पाटण में साह समरसिंह कारित नंदोद्वारा श्री कीतिरत्नाचार्य ने स्थापित किया। _आपकी जीवनी के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रसूरि रास व कई गीत हमारे संग्रह में हैं। उक्त रास का सार हमने जैन सत्यप्रकाश में प्रकाशित कर दिया है। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध ज्ञानभंडार आपके नाम से ही प्रसिद्ध है। महान् श्रुतरक्षक श्री जिनभद्रसूरिजी की परम्परा में अनेक आचार्य उपाध्याय और विद्वान हुए। में जिनभद्रसूरि परम्परा ही सर्वाधिक प्रभावशाली रही है। बीकानेर और जयपुर की भट्टारकीय, आचार्योय, आद्यपक्षीय, भावहर्षीय, जिनरंग सूरि शाखा, इन्हीं की परम्परा में हुई हैं। जिनभद्रसूरिजो की प्राचीन मूर्तियां, चरण पादुकाएं अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित दादावाड़ियों व मंदिरों में पूज्यमान हैं। चारों दादासाहब के साथ इनके चरण भी कई स्थानों में एक साथ प्रतिष्ठित हैं। सं० १४८४ में जयसागरोपाध्याय ने नगरकोट कांगड़ा की यात्रा के विवरण वाला महत्वपूर्ण विज्ञप्तिपत्र आपको भेजा था। मुनिजिनविजयजी ने विज्ञप्ति-त्रिवेणी की प्रस्तावना में श्रीजिनभद्रसूरि का परिचय इस प्रकार दिया है। -सम्पादक ] जिनभद्रसूरि शिलालेख है जिसमें इनके उपदेश से उपर्युक्त मन्दिर बनने आचार्य श्री जिनभद्रसूरि बहुत अच्छे विद्वान और व प्रतिष्ठित होने का वृत्तान्त है। इस लेख मे इनके गुणों प्रतिष्ठित हो गए हैं। उन्होंने अपने जीवन-काल में उपदेश तथा इनके करवाये हुए धर्म-कार्यों का संक्षिप्त उल्लेख करने द्वारा अनेक धर्मकार्य करवाये, कई राजा-महाराजाओं को वाला एक गुरु वर्णनाष्टक है। इस अष्टक के अवलोकन अपने भक्त बनाए। विविध देशों में विचर कर जैन- से इनके जीवन का अच्छा परिचय मिलता है। उक्त धर्म की समुन्नति करने का विशेष प्रयत्न किया। जैसल- संस्कृत अष्टक का तात्पर्य यह है कि ये बड़े प्रभावक, मेर के संभवनाथ मन्दिर में सं. १४६७ का एक बड़ा प्रतिष्ठावान और प्रतिभाशाली आचार्य थे। सिद्धान्तों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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