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________________ । २८ ] आचार्य श्री की आज्ञा से जिनपालोपाध्याय ने शास्त्रार्थ चातुर्मास किये, किस जगह कैसा धर्मप्रचार किया, किया। शास्त्रार्थ का विषय था "जैन दर्शन ब्राह्य हैं।" कितने शिष्य-प्रशिष्याएं आदि दीक्षित किये, कहां पर किस इस शास्त्रार्थ में पं० मनोदानन्द बुरी तरह पराजय को विद्वान के साथ शास्त्रार्थ या वाद-विवाद किया, किस प्राप्त हुआ। राजा पृथ्वीचन्द्र ने जयपत्र जिनोपालोपाध्याय राजा की सभा में कैसा सम्मानादि प्राप्त किया-इत्यादि को प्रदान किया। बहुत ही ज्ञातव्य और तथ्यपूर्ण बातों का इस ग्रन्थ में सं० १२७७ आषाढ़ शुक्ल १० को आचार्यश्री ने गच्छ- बड़ी विशद रीति से वर्णन किया गया है । गुजरात, मेवाड़, सुरक्षा की व्यवस्था कर वीरप्रभ गणि को गणनायक बनाने मारवाड़, सिन्ध, बागड़, पंजाब और विहार आदि अनेक का संकेत कर अनशनपूर्वक स्वर्ग की ओर प्रयाण किया। देशों के अनेक गाँवों में रहने वाले सैकड़ों ही धर्मिष्ठ और आचार्य जिनपतिसूरि कृत प्रतिष्ठायें. ध्वजदण्ड स्थापन, धनिक श्रावक-श्राविकाओं के कुटुंबों का और व्यक्तियों का पदस्थापन महोत्सव, शताधिक दीक्षा महोत्सव आदि धर्म- नामोल्लेख इसमें मिलता है और उन्होंने कहाँपर, कैसे पूजाकृत्यों का तथा आचार्य श्रीके व्यक्तित्व का अध्ययन एवं प्रतिष्ठा एवं संघोत्सव आ दे धर्मकार्य किये, इसका निश्चित शिष्य प्रशिष्यों की विशिष्ट प्रतिभा का अंकन करने के लिये विधान मिलता है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रन्थ अपने द्रष्टव्य है-जिनोपालोपाध्याय कृत 'खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' ढंग की एक अनोखी कृति जैसा है। इस ग्रन्थ के आविष्का इस महत्वपूर्ण गुर्वावली के सम्बन्ध में मनि जिनविजय रक बीकानेर निवासी साहित्योपासक श्रीयुत अगरचन्दजी जी ने इस प्रकार लिखा है : नाहटा हैं और इन्होंने ही हमें इस ग्रन्थ के संपादन की ___"इस ग्रन्थ में विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ सादर प्रेरणा दी है। नाहटाजी ने इस ग्रन्थ का ऐतिहामें होने वाले आचार्य वर्द्धमानसरि से लेकर चौदहवीं सिक महत्व क्या है और सार्वजविक दृष्टि से भी किन-किन शताब्दी के अंत में होनेवाले जिनपद्मसूरि तक के खरतर गच्छ ऐतिहासिक बातों का ज्ञातव्य इसमें प्राप्त होता है यह मुख्य के आचार्यो का विस्तृत चरित वर्णन है । गुर्वावली अर्थात् संक्षेप में बताने का प्रत्यन किया है। गुरु परम्परा का इतना विस्तृत और विश्वस्त चरित वर्णन [भारतीय विद्या पुस्तक १ अंक ४ पृ० २६६] करनेवाला ऐसा और कोई ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ। आचार्य श्री की रचनाओं में संघपट्टक वृहद् वृत्ति, प्राय: चार हजार श्लोक परिमाण यह ग्रन्थ है और इसमें पंचलिङ्गी प्रकरण टीका, प्रबोधोदय वादस्थल, खरतरगच्छ प्रत्येक आचार्य का जीवन-चरित इतने विस्तार के साथ समाचारी, तीर्थमाला आदि के अतिरिक्त कतिपय स्तुति दिया गया है कि जैसा अन्यत्र किसी ग्रन्थ में किसी भी आचार्य स्तोत्रादि भी पाये जाते हैं। का नही मिलता । पिछले कई आचार्यों का चरित तो आपके पट्टपर सुप्रसिद्ध विद्वान नेमिचन्द्र भाण्डागारिक प्रायः वर्षवार के क्रम से दिया गया है और उनके विहार के पुत्र वीरप्रभ गणि को सं० १२७७ माघ शुक्ल ६ को क्रम का तथा वर्षा-निवास का क्रमवद्ध वर्णन किया गया जावालिपुर (जालौर) के महावीर चैत्य में श्री सर्वदेवसूरि है। किस आचार्य ने कब दीक्षा दी, कब आचार्य पदवी ने आचार्य पद देकर जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के नाम से प्रसिद्ध प्राप्त की, किस-किस प्रदेश में विहार किया, कहां-कहां किया । of Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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