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________________ अन्त में गुरुदेव का ही चमत्कार समझ कर महाराजा ने जिसके कारण ही 'मणिधाीजी' के नाम से अपकी प्रसिद्धि उसी स्थान पर अग्निसंस्कार करने का राजकीय आदेश हुई। इस मणि के विषय में पट्टावली में यह उल्लेख मिलता प्रदान किया। है कि आपने अपने अन्त समय में श्रावकों से कह दिया था इसके पश्चात् इस प्रकार की चमत्कारपर्ण घटना के कि अग्निसंस्कार के समय मेरे शरीर के निकट दूध का पात्र कारण गुरुदेव का अग्निसंस्कार उपी स्थान पर किया गया। रखना जिससे वह मणि निकल कर उसमें आ जायगी; किन्तु मणिधारी श्री जिनचन्द्रसरिजी ने इस प्रकार अपना गरुवियोग की व्याकुलता से श्रावकगण ऐसा करना भूल मंगलमय ऐहिक जीवनयापन कर अपने समय में जिनशासन गए एवं भवितव्यतावश वह मणि किसी अन्य योगी के हाथ की उन्नति के साथ-साथ कई अलौकिक कार्य किये। लग गई। कहा जाता है कि श्री जिनपतिसूरिजी ने उस 'वशेषत: अपने चेत्यवासी पाचन्द्राचार्य जैसे क्योवद एवं योगी को स्तम्भित प्रतिमा प्रतिष्ठित कर उससे वह मणि ज्ञानवृद्ध आचार्य को शास्त्रार्थ में परास्त कर तथा दिल्लीश्वर प्राप्त कर ली थी। महाराजा मदनपाल को चमत्कृत करते हुए जो अभूतपूर्व कार्य वस्तुत: मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी महान् प्रतिभाकिये निस्सन्देह वे आपकी उत्कृष्ट साधना के परिचायक शाली एवं चमत्कारी आचार्य थे, इसमें संदेह नहीं। वेवल ही हैं। इसके अतिरिक्त आपने महत्तियाण (मन्त्रिदलीय) ६ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण कर ८ वर्ष की अल्पायु जाति की स्थापना कर महान् उपकार किया। आपके में अ चार्यपद प्राप्त कर लेना कम विस्मयकारक नहीं है । द्वारा संस्थापित इस जाति की परम्परा के कई व्यक्तियों ने ऐसे युगप्रधान मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के प्रति हृदय पूर्वदेश के तीर्थों का उद्धार कर शासन की महान सेवायें की। से जितनी भी श्रद्धाञ्जलि अपित की जाय, थोड़ी है। आचार्यदेव श्री जिन चन्द्रसूरिजी के ललाट में मणि थी, [श्रीजिनदतसूरि सेवासंघ प्रकाशित दादागुरु चरित्र से ] [ मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि जी के महान् व्यक्तित्व का ज्ञान यु० प्र० श्री जिनदत्तसूरिजी को उनके माता के गर्भ में आने से पूर्व ही हो गया था। युगप्रधानाचार्य गर्वावली में जिनपालोपाध्याय ने लिखा है - "स्वज्ञानबल दृष्ट निज पट्टोद्धारकारि रासलाङ्गरुहाणां भास्करवद्विबोधित भवन मण्डल भव्याम्भोरुहाणां" इस संकेतात्मक रहस्य का उद्घाटन करते हुए सतरहवी शताब्दी की गर्वावली में यह उल्लेख किया है कि एक बार सेठ रामदेव ने श्री जिनदत्तसूरजी से पछा कि आपकी वृद्धावस्था आ गई, आपके पद योग्य शिष्य कौन है ? सुरिजी ने कहा- अभी तो वैसा काई दिखाई नहीं देता ! रामदेव ने पूछा- अभी नहीं है तो क्या कोई स्वर्ग से आवेंगे? पूज्यश्री ने कहा-ऐसा ही होगा ! रामदेव ने कहा-कैसे?आपने कहा - अमुक दिन देवलोक से च्यव कर विक्रमपुर के श्रेष्ठी रासल की लघु धर्मपत्नी को कुक्षि में मेरे पट्टयोग्य जीव अवतीर्ण होगा। यह सुनकर कुछ दिन बाद रामदेव सांढ़ पर चढ़ कर विक्रमपुर रासल श्रेष्ठी के घर पहुँचे । सेठ ने कुशलवार्तापछने के पश्चात आगमन का कारण पछा । रामदेव ने कहा- आपकी लघभार्या को बुलाइये ! उसके आने पर रामदेव ने पट्ट पर बैठाकर देल्हणदेवो के कण्ठ में हार पहनाते हुए नमस्कार किया। रासल श्रेष्ठी के इसका कारण पूछने पर रामदेव ने जिनदत्तसूरि द्वारा ज्ञात, इनकी कुक्षिमें उनके पट्टयोग्य पुण्यवान् जीव के अवतीर्ण होने का हर्ष संवाद कह सुनाया। इस प्रकार श्री जिनदत्तसरिजी ने इनकी विशिष्ट योग्य आने से पूर्व ही अपने ज्ञानबल से जान ली थी। आपकी जीवनी के सम्बन्ध में हमारी "मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि" पुस्तक द्वितीयावृत्ति विशेष रूप से द्रष्टव्य है उसमें आपकी रचनाएं व्यवस्थाशिक्षाकूलक" व स्तोत्रादि भी प्रकाशित हैं। -सम्पादका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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