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________________ नवाङ्गो-वृत्तिकार श्री अभयदेवसरि [अगरचंद नाहटा] सुविहित मार्ग प्रकाशक श्री जिनेश्वरसूरिजो के दो की परम्परा शिथिल हो जाने से बहुत से गुरु आम्नाय लुप्त प्रधान शिष्य थे, एक संवेगशाला प्रकरणकर्ता श्री जिनचन्द्र- हो गए और मूल पाठ भी त्रुटित और अशुद्ध होते जा रहे सूरि और दूसरे नवाङ्गी वृत्तिकर्ता श्री अभयदेवसूरि । थे। ऐसी परिस्थिति को देख कर अभयदेवसूरि ने अपनी श्री जिनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर श्रीजिनचन्द्रसूरि और उनके पट्ट बहुश्रुतता का उपयोग उन आगमों पर टीकाएँ बनाने पर श्री अभयदेवसूरिजो प्रतिष्ठित हुए। आपके प्रारम्भिक के रूप में किया । सं० ११२० से ११२८ तक यह कार्य जीवन के सम्बन्ध में प्रभावक चरित्र में लिखा है कि आचार्य निरन्तर चलता रहा। पाटण में आगमों को प्रतियां और जिनेश्वरसूरि सं० १०८० के पश्चात् जावालिपुर (जालोर) चैत्यवासी आगम विज्ञ आचार्य का सहयोग सुलभ था । मध्य से विहार करते हुए मालव प्रदेश की राजधानी धारानगरी वर्ती समय में सं० ११२४ में आपने धवलका में रहते हुए में पधारे। वहां आपका प्रवचन निरन्तर होता था। इसी बकुल और नंदिक सेठ के घर में पंचाशक टीका बनाई। नगरी में श्रेष्ठी महीधर नामक विचक्षण व्यापारी रहता ठाणांग सूत्र से लेकर विपाक सूत्र तक नवाङ्गों की जो था। उनकी पत्नी धनदेवो थी। अभयकुमार उनका सौभाग्य- आपने टीका बनाई, उसका संशोधन उदारभाव से चैत्यवासी शाली पुत्र था। आचार्य जिनेश्वर सूरि का व्याख्यान सुने गीतार्थ द्रोणाचार्य से कराया जिससे वे सर्वमान्य हो गई। के लिए महीधर का पुत्र अभयकुमार भी आया करता था। अभयदेवसूरिजी के जीवन की दूसरी घटना स्तंभन पार्श्वआचार्यश्री के वैराग्यपोषक शांत रसवर्द्धक उपदेश से नाथ प्रतिमा को प्रकट करना है । कहा गया है कि टोकाएं अभयकुमार प्रभावित हुआ और माता-पिता से अनुमति रचने के समय अधिक परिश्रम और चिरकाल आयंबिल प्राप्त कर श्रीजिनेश्वरसरि के पास दीक्षा ग्रहण की। उनका तप के कारण आपका शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जरित हो दीक्षा नाम अभयदेवमुनि रखा गया। गया । अनशन करने का विचार करने पर शासनदेवी ने कहा श्रीजिनेश्वरसूरि के पास ही स्व-पर शास्त्रों का विधिवत् कि सेढी नदी के पार्श्ववर्ती खोखरा पलाश के नीचे भ० अध्ययन अभयदेव ने किया। ज्ञानार्जन के साथ-साथ वे पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। आपकी स्तवना से वह प्रतिमा उग्न तपश्चर्या भी करने लगे। आपको योग्यता और प्रतिभा प्रकट होगी। उस प्रतिमा के स्नात्रजल से आपकी सारी व्याधि को देखकर जिनेश रसूरि ने आपको संवत् १०८८ में आचार्य मिट जायगी। शासनदेवी के निर्देशानुसार उन्होंने “जयतिहुपद प्रदान किया। अ" स्तोत्र द्वारा भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट की। ___ उस समय के प्रमुख प्रमुख आचार्य सैद्धान्तिक आगमों आज भी यह स्तोत्र प्रतिदिन खरतरगच्छ में प्रतिक्रमण में का अध्ययन छोड़कर आयुर्वेद, धनुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक, बोला जाता है । नाट्य शास्त्रादि विषयों में पारगत होते जा रहे थे । मंत्र, यंत्र सुमतिगणि रचित गणधर सार्धशतक वृहद् वृत्ति, और तंत्र विद्या के चमत्कारों से राजाओं व जनता पर भी जिनोपालोपाध्याय कृत युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, जिनउनका अच्छा प्रभाव जमता जाता था। आगमों के अभ्यास प्रभसूरि कृत विविध तीर्थकल्प एवं सोमधर्म रचित उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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