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________________ [ ५ ] रिक्त संघपुर जैन मन्दिर की भित्ति में लगे हुए प्रायः सं० १३२६ ( ? ) के अपूर्ण शिलालेख की नकल स्व बुद्धिसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'बीजापुर- वृत्तान्त' के लिए मैंने ५४ वर्ष पहिले उद्धृत की थी, उसमें यह पद्य है [१२] "संवेगरङ्गशाला सुरभिः सुरविटपि कुसुममालेव । शुचितामरसरिदिव यस्य कृतिर्जयति कीर्तिरिव ॥ भावार्थ:- जिसकी (श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की ) कृति संवेगरंगशाला सुगन्धि कल्पवृक्ष की कुसुममाला जैसी और पवित्र सरस गंगानदो जेसी, और उनकी कीर्ति जैसी जयवती है । [ ६ ] उनकी परम्परा के चन्द्रतिलक उपाध्याय ने वि० सं० १३१२ में रचे हुए सं० अभयकुमार चरित काव्य में दो पद्य हैं कि " तस्याभूतां शिष्यौ, तत्प्रथमः सूरिराज जिनचन्द्रः । संवेगरङ्गशालां व्यधित कथां यो रसविशालाम् ॥ बृहन्नमस्कारफल, श्रोतृलोक सुधाप्रपाम् । चक्रे क्षपक शिक्षां च यः संवेगविवृद्धये ॥ " भावार्थ:- उनके (श्रीजिनेश्वरसूरिजी के ) दो शिष्य हुए । उनमें प्रथम सूरिराज जिनचन्द्र हुए; जिसने रसविशाल श्रोता लोगों के लिये अमृत परव जैसी संवेगरंगशाला कथा की, और जिसने बृहन्नमस्कारफल तथा संवेग की विवृद्धि के लिये क्षपकशिक्षा की थी । राजगृह में विक्रम को पन्द्रहवीं शताब्दी का जो शिलालेख उपलब्ध है, उसमें उनके अनुयायी भुवनहित उपाध्याय ने संस्कृत प्रशस्ति में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की संवेगरंगशाला का संस्मरण इस प्रकार किया है--- "ततः श्रीजिनचन्द्राख्यो बभूव मुनिपुंगवः । संवेगरङ्गशालां यश्चकार च बभार च ॥" Jain Education International भावार्थ:- उसके बाद ( श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पीछे ) श्रीजिनचन्द्र नामके श्रेष्ठ सूरि हुए, जिसने संवेग रंगशाला की, और धारण-पोषण की । -- उत्तमोत्तम यह संवेगरंगशाला ग्रन्थ कई वर्षों के पहिले श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार, सूरत से तीन हजार पद्य प्रमाण अपूर्ण प्रकाशित हुआ था। दस हजार तिरेपन गाथा प्रमाण परिपूर्ण ग्रन्थ आचार्यदेवविजयमनोहरसूरि शिष्याणु मुनि परम तपस्वी श्री हेमेन्द्रविजयजी और पं० बाबूभाई सवचन्द के शुभ प्रयत्न से संशोधित संपादित होकर, विक्रम संवत् २०२५ में अणहिलपुर पत्तनवासी भवेरी कान्तिलाल मणिलाल द्वारा मोहमयी मुम्बापुरी पत्रकार प्रकाशित हुआ है । मूल्य साढ़े बारह रुपया है । गत सप्ताह में हो संपादक मुनिराज ने कृपया उसकी १ प्रति हमें भेंट भेजी है । इस ग्रन्थ के टाइटल के ऊपर तथा समाप्ति के पीछे कर्त्ता श्रीजिनचन्द्रसूरिजी का विशेषण तपागच्छीय छपा है, घट नहीं सकता । 'तपागच्छ' नामकी प्रसिद्धि सं० १२८५ से श्री जगच्चन्द्रसूरिजी से है, और इस ग्रन्थ की रचना वि० संवत् ११२५ में अर्थात् उससे करीब डेढ़ सौ वर्ष पहिले हुई थी । और वहाँ गुजराती प्रस्तावना में इस ग्रन्थकार श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को समर्थ तार्किक महावादी श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी कृत संगतितर्क ग्रन्थ पर असाधारण टीका लिखनेवाले पू० आचार्यदेव श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज के वडील गुरुबन्धु सूचित किया, वह उचित नहीं है । इस संवेगरंगशाला की प्रान्त प्रशस्ति में स्पष्ट सूचन है कि वे अंगों की वृत्ति रचनेवाले श्रीअभयदेव सूरिजी के वडील गुरुबन्धु थे, उनकी अभ्यर्थना से इस ग्रन्थ की रचना सूचित की है । अभयदेवसूरिजी ने अङ्गों (आगम) पर वृत्तियाँ विक्रम संवत् ११२० से ११२८ तक में रची थी, प्रसिद्ध है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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