SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तो नरवर्मा ने इनका बड़ा सम्मान किया और इन्हें काफी दान देने की इच्छा प्रकट की । इन्होंने इसे अस्वीकार करते हुये केवल इतना ही कहा कि वे चित्तौड़ में निर्मित विधिचेत्य की पूजा के निमित्त व पारुत्थ मुद्राओं की व्यवस्था चित्तौड़ की मंडपिका से करवा देवें । तदनुसार व्यवस्था करा दी गई। इनका देहावसान चित्तौड़ में वि० स० ११६७ कार्तिक बदि १२ को हुआ था । इसके कुछ समय पूर्व ही इनका पाटोत्सव चित्तौड़ में ही सम्पन्न कराया गया था। इनके द्वारा विरचित ग्रन्थों में संघपट्टक, धर्मशिक्षा, पिंडविशुद्धि, द्वादशकुलक प्रकरण आदि प्रसिद्ध हैं । जिनदत्तसूरि जिनवल्लभसूरि के बाद आचार्य बने । इनका पाटोत्सव चित्तौड़ में वि० सं० १९६६ वैशाख सुदि ६ को हुआ । इनका प्रारम्भ का नाम सोमचन्द्र था और आचार्य बनने पर इन्हें जिनदत्त नाम दिया गया था । चैत्यवासियों का बड़ा प्रचार चित्तौड़ में चल रहा था । जब ये चित्तौड़ में प्रवेश कर रहे थे तब एक साँप और एक नकटी औरत को इनके सामने भेजा ताकि अपशुकुन हो जाये किन्तु ज्ञानादित्य जिनदत्तसूरि ने कहा कि यह अपशकुन नहीं है। इसका फल वे लोग ही भोगेंगे। इस प्रकार बड़े समारोह पूर्वक इन्होंने चित्तौड़ में प्रवेश किया था । श्रेष्ठि राल्हा का उल्लेख खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार मिलता है । इसने जिनेश्वरसूरि के उपदेश से वि० सं० १२०८ में चित्तौड़ में बड़ा महोत्सव किया। इसमें अजित सेन, गुणसेन, अमृतमूर्ति, धर्ममूर्ति, राजमती, हेमावलो कनकावलो, रत्नावली आदिको दीक्षा दो । (६) चित्रकूट मण्डपिकातस्तत् शाश्वतदानं भविष्यतोति कृतम्” युगप्रधान गुर्वावली पृ० १३ । (७) शोधपत्रिका वर्ष १ अंक ३ में प्रकाशित श्रीनाहटाजी 37 । १७४ । t का लेख | वीरभूमि चित्तौड़ पृ० १५७ । (८) वरदा वर्ष ६ अंक ३ पृ० ६-७ में प्रकाशित मेरा Jain Education International c इसी वर्ष आषाढवदि २ को चित्तौड़ मैं नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, ऋषभदेव आदि की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी की। इसमें ८००० रु० श्रेष्ठि लक्ष्मीधर ने और शेष राशि श्रेष्ठि राल्हा ने व्यय की । जैसलमेर भंडार में संगृहीत "कर्मविपाक" नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति से पता चलता है कि राल्हा ने वि० सं० १२८६ में शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा उक्त आचार्य के उपदेश से की थी । वि० सं० १२६५ में उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि करवाई थी । सम्भवतः उस समय जिनेश्वरसूरि धारा में थे और राल्हा उनके दर्शनार्थ वहां गया हुआ था । मेवाड़ में महारावल जैतसिंह, तेजसिंह और समरसिंहका शासनकाल बड़ा महत्वपूर्ण था । इस काल में जैन धर्म की बड़ी उन्नति हुई । चित्तौड़ से बड़ी संख्या में शिल| लेख और ग्रन्थ प्रशस्तियां इस काल की मिली हैं । खरतरगच्छ परम्परा के अनुसार वि० सं० १३३४ में जिनप्रबोधसूरि यहां आये थे । फाल्गुन सुदि ५ को प्रतिष्ठा मुहूर्त हुआ । इनमें मुनिसुव्रतस्वामी, युगादिदेव, अजितनाथ, वासुपूज्य, महावीर स्वामी, समवसरणपट्टिका आदि की प्रतिमा शांतिनाथ चैत्यालय में स्थापित की थी। इस उत्सव के समय महारावल समरसिंह, राजकुमार अरिसिंह आदि भी उपस्थित थे । इस समय श्रेष्ठि आल्हक और धांधल प्रमुख श्रावक थे । श्रेष्ठिधांधल और उसके पुत्रों का उल्लेख कई ग्रन्थ प्रशस्तियों में भी है । वि० सं० १३४३ की जैसलमेर भंडार की चन्द्रदूताभिधान की प्रशस्ति में भी इसका उल्लेख है। इस परिवार ने लाखों रुपये सार्वजनिक कार्यों के लिये व्यय किये थे । फाल्गुन सुदि लेख और उक्त पत्रिका के वर्ष ६ अंक ४ में प्रकाशित डा० दशरथ शर्मा की टिप्पणी । वोरभूमि चित्तोड़ पृ० १५७ । (E) युगप्रधान गुर्वावली पृ० ५६, ( वीरभूमि चित्तोड़ पृ० १५६ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy