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________________ । १२ । जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सातवें ग्रन्थांक के रूप में उ. बनारसीदासजी का अर्द्धकथानक नामक हिन्दी की हर्षराज को लघु वृत्त एवं साधुकीति की अवचूरि सह पहला पद्यबद्ध आत्मचरित हिन्दी साहित्य में अपने ढंगका प्रकाशित हो चुकी है। अद्वितीय ग्रन्थ है। समयसार, बनारसी-विलास, नाममाला सतरहवीं शताब्दी में हिन्दी जैन कवियों में कविवर आदि आपको रचनाएं पर्याप्त प्रसिद्ध हैं और प्रकाशित हैं। बनारसोदास सर्व श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। वे श्रीमाल सतरहवीं शताब्दी के अंत में लखपत नामक खरतरजाति के खडगसेन विहोलिया के पुत्र और जौनपुर के निवासी गच्छ के एक श्रावक कवि हुए हैं जो सिन्धु देश के सामुही थे। खरतरगच्छ की श्रोजिनप्रभसूरि शाखा के विद्वान नगर के कूकड़ चोपड़ा तेजसी के पुत्र थे। इनकी प्रथम भानुचन्द्रगणि से आपने विद्याध्ययन और धार्मिक अभ्यास रचना तिलोयसुंदरी मंगलकलश चो० सं० १६६१ के आ० किया था । बनारसीदासजो के लिये भानुचन्द्रजी ने मृगांक- सु० ७ थट्टानगर में बुहरा अमरसी के कथन से रचित है। लेखा चौपाई सं० १६६३ में जौनपुर में बनाई। बनारसी. १२ पत्रों की प्रति का केवल अंतिम पत्र ही तपागच्छ भंडार दासजी ने अपनी नाममाला आदि रचनाओं में अपने जेसलमेर में हमारे अवलोकन में आया था। कवि की विद्यागुरु भानुचन्द्र का सादर स्मरण किया है। आगे दूसरी रचना मृगांकलेखा रास सं १६६४ श्रा० सु० १५ चलकर ये व्यापार के हेतु आगरा आये और समयसार, बुधवार को जिनराजसूरि-जिनसागरसूरि के समय में रची गोमट्टसार आदि दिगम्बर ग्रन्थों के अध्ययन से इनका गई। २५ पत्रों के अन्तिम २ पत्र ही तपागच्छ भंडार झुकाव दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर हो गया। उनके साथी जेसलमेर में हमारे देखने में आये । कुवरपाल चोरडिया भी 'सिंदुरप्रकर के' पद्यानुवाद में १८वीं शताब्दी में कवि उदयचन्द मथेन बीकानेर में सहयोगी रहे हैं और भी कई व्यक्ति आपकी अध्यात्मिक हुए, जो महाराजा अनूपसिंह से आदर प्राप्त थे। अनूपसिंह चर्चा से प्रभावित हुए और बनारसीदासजी का मत अध्या- के नाम से इन्होंने हिन्दी में अनूप शृगार नामक ग्रन्थ सं० स्ममती या बनारसीमत नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुलतान १७२८ में बनाया, जिसकी एक मात्र प्रति अनुप संस्कृत आदि दूरवर्ती खरतरगच्छ के ओसवाल भी अध्यात्ममत से लायब्ररी, बीकानेर में है। इसको रचना सं० १७६५ में प्रभावित हुए और वहाँ जो भी श्वेताम्बर कवि एवं विद्वान हुई। उदयचन्द मथेन का तीसरा ग्रन्थ पांडित्य-दर्पण गए उन्हें भी अध्यात्मिक रचना करने के लिये प्रेरित किया। प्राप्त है। बनारसीदासजी का वह अध्यात्म-मत अब दिगम्बरों में मलुकचन्द रचित पारसी वैद्यकग्रन्थ तिव्वसहावी का तेरहपंथ नाम से प्रसिद्ध है और लाखों व्यक्ति दिगम्बर हिन्दी पद्यानुवाद 'वैद्यहुलास'नाम से प्राप्त है। कवि ने सम्प्रदाय में उस तेरहपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। अपना विशेष परिचय या रचनाकालादि नहीं दिए पर मलतः कविवर बनारसीदासजी खरतरगच्छ के ही विशिष्ट इसकी कई हस्तलिखित प्रतियां खरतरगच्छ के ज्ञानभंडारों कवि थे। उपाध्याय मेघविजय ने भी अपने युक्ति-प्रबोध में देखने में आई अतः इसके खरतर गच्छोय होने की नाटक में इनके खरतर गच्छानुयायी होने का उल्लेख किया संभावना है। है। बनारसीदासजी की प्रारम्भिक रचनायें श्वेताम्बर १९वीं शताब्दी में अजीमगंज-मकसूदावाद के श्रावक सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं। सबलसिंघ अच्छे कवि हुए जिन्होंने सं० १८९१ में चौबीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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