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________________ भी आपने पानी लेना स्वीकार नहीं किया और समाधि हुए। आपका नाम सुखसागर रखा गया । शास्त्राम्यास पूर्वक अपनी देह का त्याग कर दिया। बीकानेर रेलदादाजी करके विद्वान हुए और व्याख्यान-वाणी मैं निष्णात में आपके अग्निसंस्कार स्थान में स्मारक विद्यमान है। हो गए। सं० १९७४ मा० सु०१० को गुरुमहाराज गढसिवाणा, मोकलसर आदि में आपने चातुर्मास किए थे ने सूरत में मंगलसागरजी को दीक्षित करे आपके गडसिवाणा में आपके ग्रन्थों का दादावाड़ी में संग्रह विद्य- शिष्य रूप में प्रसिद्ध किया। उस समय कृपाचन्द्रमान है। श्रीजिनजयसागरसूरिजी कृत श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि सूरिजी १८ ठाणों से थे, इनका १६वां नंबर था। सूरिजी चरित्र ५ सर्ग और १५७० पद्यों में सं० १६६४ फा० सु० के प्रत्येक कार्यो में आपका पूरा हाथ था। इन्दौर १३ पालीताना में रचित है जो जिनपालोपाध्यायकृन में श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार की स्थापना की। द्वादशकुलकवृत्ति के साथ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभंडार आपको सूरिजी ने प्रवर्तक पद से विभूषित किया । पालोताना से प्रकाशित है। इसमें इन्होंने अपना जन्म बालोतरा चौमासा में बहुत से स्थानकवासियों को उपदेश १९४३ दीक्षा १६५६ उपाध्याय पद १९७६ व आचार्य देकर जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। मध्याह्न में आप पद १९६० पालीताना में होना लिखा है। जसौल गांव में व्याख्यान देने जाते व शास्त्रचर्चा व धर्मोउपाध्याय मुनिसुखसागरजी पदेश देकर जिनप्रतिमा-पूजा की पुष्टि करते थे। आप श्रोजिनकृपाचन्द्रसूरिजी के शिष्यों में उपाध्यायजी का उपधान आदि की प्रेरणा करके स्थान-स्थान पर करवाते, स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। आप प्रसिद्ध वक्ता थे। आपकी संस्थाएं स्थापित करवाते एवं सामाजिक कुरीतियों के बुलन्द वाणी बहुत दूर-दूर तक सुनाई देती थी। आप विरुद्ध क्रान्तिकारी उपदेश देकर समाज में फैले हुए अधिकतर गुरुमहाराज के साथ विचरे और धार्मिक क्रियाएं मिथ्यात्व को दूर कर व्रत-पच्चक्खाण दिलाते थे। आपके कराने आदि से संघ को सम्भालने का काम आपके जिम्मे कई चातुर्मास गुरुमहाराज के साथ व कई अलग भी हुए । था। आप ने संस्कृत, काव्य, अलंकार आदि का भी जैसलमेर चौमासे में ज्ञानभण्डार के जीर्णोद्धार, अच्छा अभ्यास किया था। बीकानेर चातुर्मास के समय व प्राचीन प्रतियों की नकलें फोटोस्टेट करवाने में आपका आपको हजारों श्लोक कण्ठस्थ थे। ग्रन्थ सम्पादनादि पूरा योगदान था। फलोदी, बीकानेर में भी उपधान आदि कामों में आप हरदम लगे रहते और श्रोजिनदत्तसूरि प्राचीन हुए। फिर गुरुमहाराज के साथ पालीताना पधारे। सं. पुस्तकोद्धार फंड सूरत से सर्व प्रथम गणधर सार्द्धशतक १६६२ में शत्रुञ्जय तलहटी की धनवसही में आपकी प्रेरणा प्रकरण व बाद में पचासौं ग्रन्थों का प्रकाशन हो पाये से भव्य दादावाडी हुई जिसमें श्रीपूज्य श्रीजिनचारित्रसुरिजी वह आप के ही परिश्रम और उपदेशों का परिणाम के पास प्रतिष्ठा सम्पन्न करवायी उस समय आप उपाथा। गुरुमहाराज के स्वर्गवास के पश्चात् भी आपने वह ध्याय पद से विभूषित हुए एवं मुनि कान्तिसागरजी की काम जारी रखा और फलस्वरूप बहुत ग्रन्थ प्रकाश में टोक्षा हुई। इसके बाद सरत. अमलनेर, बम्बई आदि में आये। चातुर्मास किया। ग्रन्थ सम्पादन-प्रकाशन तो सतत् चालू आप इन्दौर के निवासी मराठा जाति के थे। सेठ ही था। नागपुर, सिवनी, बालाघाट, गोंदिया आदि कानमलजी के परिचय में आने पर उल्लासपूर्वक उनके स्थानों में चातुर्मास किये। उपधान तप आदि हुए। सहाय्य से गुरुमहाराज के पास कच्छ में जाकर दीक्षित गोंदिया का पन्द्रह वर्षों से चला आता मनमुटाव दूर कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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