SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ w] लधाभाई था। आपसे छोटे भाई नानजी और रतनबाई केशरमुनिजी व रत्नमुनिजी के साथ विचर कर चार वर्ष नामक बहिन थी। सं० १६५८ में पिताजी के साथ बम्बई बम्बई विराजे । सं० १९८९ का चौमासा जामनगर करके जाकर लधाभाई, मायखला में सेठ रतनसी की दुकान में फिर कच्छ पधारे । मेराऊ, मॉडवी, अंजार, मोटी खाखर, काम करने लगे। यहाँ से थोड़ी दूर पर सेठ भीमसी करमसी मोटा आसंबिया में क्रमश: चातुर्मास करके पालीताना को दुकान थी, उनके ज्येष्ठ पुत्र देवजो भाई के साथ और अहमदाबाद में दो चातुर्मास व बम्बई, घाटकोपर में आपकी घनिष्ठता हो गई क्योंकि वे भी धार्मिक संस्कार दो चातुर्मास किये । सं० १९९६ में सूरत चातुर्मास करके वाले व्यक्ति थे। सं० १९५८ में प्लेग की बीमारी फैली फिर मालवा पधारे। महीदपुर, उज्जैन, रतलाम में जिसमें सेठ रतनसी भाई चल बसे। उनका स्वस्थ शरीर चातुर्मास कर सं० २००४ में कोटा, फिर जयपुर, अजमेर, देखते-देखते चला गया, यही घटना संसार की क्षणभंगुरता व्यावर और गढ़ सिवाणा में सं० २००८ का चातुर्मास बताने के लिये आपके संस्कारी मनको पर्याप्त थी। मित्र बिता कर कच्छ पधारे। सं० २००६ में भुज चातुर्मास देवजी भाई से बात हुई, वे भी संसार से विरक्त थे। कर श्रीजिनरत्नसूरिजी के साथ ही दादाबाड़ी को प्रतिष्ठा संयोगवश उस वर्ष परमपूज्य श्रीमोहनलालजी महाराज को। फिर मांडवी, अंजार, मोटा आसंबिया, भुज आदि का बम्बई में चातुर्मास था। दोनों मित्रों ने उनकी अमृत- में विचरते रहे। सं० १६७६ से २०११ तक जबतक वाणी से वैराग्य-वासित होकर दीक्षा देने की प्रार्थना की। श्रोजिनरत्नसूरिजी विद्यमान थे, अधिकांश उन्हीं के साथ पूज्यश्री ने मुमुक्षु चिमनाजी के साथ आपको अपने विचरे, केवल दस बारह चौमासे अलग किये थे। उनके विद्वान शिष्य श्रीराजमुनिजी के पास आबू के निकटवर्ती स्वर्गवास के पश्चात् भी आप वृद्धावस्था में कच्छ देश के मंढार गांव में भेजा। राजमुनिजो ने दोनों मित्रों को विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते रहे । सं० १९५८ चैत्रवदि ३ को शुभमुहर्त में दीक्षा दी। आप बड़े विद्वान, गंभीर और अप्रमत्त विहारी थे । श्रीदेवजी भाई रत्नमुनि (आचार्य श्रीजिनरत्नसूरि) और लधा विद्यादान का गुण तो आप में बहुत ही श्लाघनीय था। भाई लब्धिमुनि बने । प्रथम चातुर्मास में पंच प्रतिक्रमणादि काव्य, कोश, न्याय, अलंकार, व्याकरण और जैनागमों का अभ्यास पूर्ण हो गया । सं० १६६० वैशाख सुदि १० के दिग्गज विद्वान होने पर भी सरल और निरहंकार रह को पन्यास श्रीयशोमुनिजी (आ० जिनयशःसूरिजी) के पास कर न केवल अपने शिष्यों को ही उन्होंने अध्ययन कराया आप दोनों की बड़ो दीक्षा हुई। तदनन्तर सं० १९७२ तक अपितु जो भी आया उसे खूब विद्यादान दिया। श्रीजिनराजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात और मालवा में गुरुवर्य श्रीराज- रत्नसूरिजी के शिष्य अध्यात्मयोगी सन्त प्रवर श्रीभद्रमुनि मुनिजी के साथ विचरे । उनके स्वर्गवासी हो जाने से डग ( सहजानंदघन ) जी महाराज के आप ही विद्यागुरु थे । में चातुर्मास करके सं० १६७४-७५ के चातुर्मास बम्बई उन्होंने विद्यागुरु की एक संस्कृत व छः स्तुतियाँ भाषा और सूरत में पं० श्रीऋद्धिमुनिजी और कान्तिमुनिजी के में निर्माण को जो लब्धि-जीवन प्रकाश में प्रकाशित हैं । साथ किये। तदनन्तर कच्छ पधार कर सं० १९७६-७७ के उपाध्यायजी महाराज अपना अधिक समय जाप में तो चातुर्मास भुज व मॉडवी में अपने गुरु-भ्राता श्रीरत्नमुनिजी बिताते ही थे पर संस्कृत काव्यरचना में आप बड़े सिद्धके साथ किये। सं० १९७८ में उन्हीं के साथ सूरत हस्त थे। सरल भाषा में काव्य रचना करके साधारण चौमासा कर १६७६ से ८५ तक राजस्थान व मालवा में व्यक्ति भो आसानीसे समझ सके इसका ध्यान रख कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy