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________________ [ १४५ ] से अर्ज की कि आप खरतर गच्छ के हैं और इधर धर्म का उद्योत करते हैं तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बंगाल को भी धर्म में टिकाये रखिये ! गुरुमहाराज ने पं० हरखमुनिजी को कहा कि तुम खरतरगच्छ के हो, पारख गोत्रीय हो अत: खरतर गच्छ को क्रिया करो । पंन्यास जी ने गुर्वाज्ञाशिरोधार्य मानते हुए भी चालू क्रिया करते हुए उधर के क्षेत्रों को संभालने की इच्छा प्रकट की । गुरुमहाराज ने अजमेर स्थित हमारे चरित्र नायक यशोमुनि जी को आज्ञापत्र लिखा जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। गुरु महाराज को इससे बड़ा सन्तोष हुआ । चातुर्मास बाद पन्यास जी बम्बई की और पधारे और दहाणु में गुरुमहाराज के चरणों में उपस्थित हुए । आपने गुरु- महाराज की बड़ी सेवाभक्ति की, वेयावच्च में सतत् रहने लगे । एकदिन गुरुमहाराज ने यशोमुनिजी को बुलाकर शत्रुजय यात्रार्य जाने की आज्ञा दी। वे ८ शिष्यों के साथ वल्लभीपुर तक पहुँचे तो उन्हें गुरुमहाराज के स्वर्गवास के समाचार मिले | सं० १९६४ का चातुर्मास पालीताना करके सेठानी आणंदकुंवर बाई की प्रार्थना से रतलाम पधारे । सेठानीजी ने उद्यापनादिमें प्रचुर द्रव्य व्यय किया। सूरत के नवलचन्द भाई को दीक्षा देकर नीतिमुनि नाम से ऋद्धिमुनिजी के शिष्य किये। इसी समय सूरत के पास कठोर गांव में प्रतिष्ठा के अवसर पर एकत्र मोहनलालजी महाराज के संघाड़े के कान्तिमुनि, देवमुनि, ऋद्धिमुनि, नयमुनि, कल्या मुनि क्षमामुनि आदि ३० साधुओं ने श्रीयशोमुनिजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का लिखित निर्णय किया । श्रीयशोमुनिजी महाराज सेमलिया, उज्जैन, मक्सीजो होते हुए इन्दौर पधारे और केशरमुनि, रतनमुनि भावमुनि को योगोद्वहन कराया। ऋद्धिमुनिजी भी सूरत से विहार कर मांडवगढ में आ मिले । जयपुर से गुमानमुनिजी भी गुणा 'की छावनी आ पहुँचे । आपने दोनों को योगोहन क्रिया में प्रवेश कराया । सं० १९६५ का चातुर्मास ग्वालियर में किया | योगोद्वहन पूर्ण होने पर गुमानमुनिजी Jain Education International ऋद्धिमुनिजी और केशरम निजी को उत्सव पूर्वक पन्यास पद से विभूषित किया। पूर्व देश के तीर्थों की यात्रा की भावना होने से ग्वालियर से विहार कर दतिया, झांसी, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या, काशी, पटना होते हुए पावापुरी पधारे। वीरप्रभु की निर्वाणभूमि की यात्रा कर कुंड लपुर, राजगृहो, क्षत्रियकुंड आदि होते हुए सम्मेतशिखरजी पधारे । कलकत्ता संघ ने उपस्थित होकर कलकत्ता पधारने की वीनत की । आपश्री साधुमण्डल सहित कलकत्ता पधारे और एक मास रहकर सं० १९६६ का चातुर्मास किया । सं० १९६७ अजीमगंज और सं० १९६८ का चातुर्मास बालूचर में किया। आपके सत्संग में श्री अमरचन्दजी बोथरा ने धर्म का रहस्य समझकर सपरिवार तेरापंथ को श्रद्धात्यागकर जिनप्रतिमा की दृढ़ मान्यता स्वीकार की। संघ की वीनति से श्रीगुमानमुनिजी, वेशरमुनिजी और बुद्धिमुनिजी को कलकत्ता चातुर्मास के लिए आपश्री ने भेजा । आपश्री शान्तदान्त, विद्वान और तपस्वी थे। सारा संघ आपको आचार्य पद प्रदान करने के पक्ष में था। सूरत में किये हुए ३० मुनि सम्मेलन का निर्णय, कृगचन्द्रजी महाराज व अनेक स्थान के संघ के पत्र आजाने से जगत सेठ फते चन्द, रा० ब० केशरीमलजी रा० ब० बद्रीदासजी, नथमलजी गोलछा आदि के आग्रह से आपको सं० १९६६ ज्येष्ठ शुद६ के दिन आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया । आपश्री का लक्ष आत्मशुद्धि की ओर था मौन अभिग्रह पूर्वक तपश्चर्या करने लगे। पं० केशरमुनि भावमुनिजी साधुओं के साथ भागलपुर, चम्पापुरी, शिखरजी की यात्रा कर पावापुरी पधारे। आश्विन सुदी में आपने ध्यान और जापपूर्वक दीर्घतपस्या प्रारम्भ की । इच्छा न होते हुए भी संघ के आग्रह से मिगसरवदि १२ को ५३ उपवास का पारणा किया। दुपहर में उल्टी होने के बाद अशाता बढ़ती गई और मि० सु०३ सं० १९७० में समाधि पूर्वक रात्रि में २ बजे नश्वर देह को त्यागकर स्वर्गवासी हुए । पावापुरी में तालाब के सामने देहरी में आपकी प्रतिमा विराजमान की गई । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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