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________________ [ ४ ] को लक्ष्य में रखकर अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चत्याधिकार का और शिथिलाचार का त्याग कर संयम की विशुद्धि के निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे संयमी बनने लगे। संयम और तपश्चरण के साथ-साथ, भिन्न-भिन्न विषयों और शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानसंपादन कार्य भी इन यतिजनों में खूब उत्साह के साथ व्यवस्थित रूप से होने लगा । सभी उपादेय विषयों के नये-नये ग्रन्थ निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण आदि रचे जाने लगे । अध्ययन-अध्यापन और ग्रन्थ निर्माण के कार्य में आवश्यक ऐसे पुरातन जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त ब्राह्मण और बौद्ध सम्प्रदाय के भी व्याकरण, न्याय, अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयों के सभी महत्वपूर्ण ग्रन्थों की पोथियों के संग्रहवाले बड़े-बड़े ज्ञानभण्डार भी स्थापित किये जाने लगे । अब यतिजन केवल अपने-अपने स्थानों में हीं बद्ध होकर बैठ रहने के बदले भिन्न-भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्मप्रचार का कार्य करने लगे । जगह-जगह अजैन क्षत्रिय और वैश्य कुलों को अपने आचार और ज्ञान से प्रभावित कर, नये-नये जैनश्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी-कुल नवीन जातियों के रूप में संगठित किये जाने लगे । पुराने जैन देवमन्दिरों का उद्धार और नवीन मन्दिरों का निर्माण कार्य भी सर्वत्र विशेष रूप से होने लगा । जिन यतिजनोंने चैत्यनिवास छोड़ दिया था उनके रहने के लिये ऐसे नये-नये वसति गृह बनने लगे जिनमें उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी aat free- नैमित्तिक धर्म क्रियायें करने की व्यवस्था रखते थे । ये ही वसति गृह पिछले काल में उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध हुए । मन्दिरों में पूजा और उत्सवों की प्रणालिकाओं में भी नये-नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों में परस्पर, कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर भी वाद-विवाद होने लगा, और इसके परिणाम में कई नये Jain Education International नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे। ऐसे चर्चास्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बड़े ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे और एक-दूसरे सम्प्रदाय की ओर से उनका खण्डन- मण्डन भी किया जाने लगा। इस प्रकार इन यतिजनों में पुरातन प्रचलित प्रवाह की दृष्टि से, एक प्रकार का नवीन जीवनप्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघ का नूतन संगठन बनना प्रारम्भ हुआ । इस तरह तत्कालीन जैन इतिहास का सिंहावलोकन करने से ज्ञात होता है कि विक्रम की ११ वीं शताब्दी के प्रारंभ में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नूतन युग की उषा का आभास होने लगा, जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि के क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवनकार्य ने इस युग परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्त स्वरूप दिया। तब से लेकर पिछले प्रायः ६०० वर्षो में, इस पश्चिम भारत में जैन धर्म के जो सांप्रदायिक और सामाजिक स्वरूप का प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टि से जिनेश्वरसूरि को, जो उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने, युगप्रधान पदसे संबोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा हो सत्य वस्तुस्थिति का निदर्शक है । जिनेश्वरसूरि एक बहुत भाग्यशाली साधु पुरुष थे। इनकी यशोरेखा एवं भाग्य रेखा बड़ी उत्कट थी । इससे इनको ऐसे-ऐसे शिष्य और प्रशिष्यरूप महान् सन्ततिरत्न प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्य ने इनके गौरव को दिगन्तव्यापी और कल्पान्त स्थायी बना दिया । यों तो प्राचीनकाल में, जैन संप्रदाय में सैकड़ों ही ऐसे समर्थ आचार्य हो गए हैं जिनका संयमी जीवन जिनेश्वरसूरि के समान ही महत्वशाली और प्रभावपूर्ण था; परन्तु जिनेश्वरसूरि के जैसा विशाल प्रज्ञ और विशुद्ध संयमवान्, विपुल शिष्य-समुदाय शायद बहुत ही थोड़े For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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