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________________ | १३१ 1 कता के प्रशस्त चिन्ह पाये । लोक कल्याण की भावना से प्रेरित हो गुरु महाराज ने श्रीहनुमन्तसिंह जी को उपदेश दिया कि तुम्हारे ५ लड़के हैं । उनमें से इस मध्यम कुमार को आप हमें दे दो। क्योंकि यह कुमार बड़ा भारी साधु होगा, और अपने उपदेशों से जैनशासन की महती सेवा करेगा । इसको देने से तुमको भी अपूर्व धर्म-लाभ होगा । गुरुमहाराज की इस पुण्य प्रेरणा से प्रेरित हो वीरहृदयो हनुमन्तसिंहजी ने बड़ी वीरता के साथ अपने प्राण प्यारे पुत्र को धर्म के नाम पर श्रीगुरुमहाराज को भेंट कर दिया । गुरुदेव और कुमार के इस सफल संयोग से 'सोने में सुगन्ध की कहावत चरितार्थ हुई । धन्य गुरु ! घन्य पिता !! धन्य कुमार !!! साधुता के अङ्कुर श्री गुरु महाराज ने अपनी वृद्धावस्था के कारण कुमार की विशेष देखभाल और पठन-पाठन का भार अपने सहयोगी महातपस्वी श्री छगनसागरजी महाराज को दिया । पूज्य तपस्त्रीजी के योग्य अनुशासन में महामहिम शालिनी मेधावाले कुमार ने साधु क्रिया के सूत्र थोड़े ही समय में सोख लिये । पूर्व जन्म के पुण्योदय की प्रबलता से आठ वर्ष की बाल्य अवस्था में गुरु महाराज की परम दया से ' के बोज अङ्कुरित हो गये । साधुता साधु श्री हरिसागरजी कुमार हरिसिंह जब कुछ अधिक साढ़े आठ वर्ष के हुए, तब युवकों का सा जोश, और वृद्धों का सा अनुभव रखते थे । गुरु महाराज ने माता पिता को और स्थानीय ( फलोदी) जैन संघ को अनुमति से आपकी दीक्षा का प्रशस्त मुहुर्त्त १९५७ आषाढ़ कृष्ण ५ के दिन निर्धारित किया । अपने आयुष्य की अवधि निकट आ जाने से श्री गुरु महाराज ने श्री संघ से खमत - खामणा करते हुए अन्तिम आज्ञा दो कि 'हरिसिंह को योग्य अवस्था होने पर इसे मेरा उत्तराधिकारी मानना' संघ के मुखिया महा Jain Education International तपस्वी श्रीछतनसागरजी म० ने अपने पूज्य गणाधीश्वरजी की इस आज्ञा को शिरोधार्य करके, उनको निश्चिन्त बना दिया । गणि श्रीभगवान्सागरजी महाराज आत्मरमण करते हुए दिव्य लोक को सिधार गये तब संघ में एक दम शोक छा गया । परंतु गुरुदेव के प्रतिनिधि स्वरूप कुमार हरिसिंह के दीक्षा महोत्सव ने शोक को मिटा कर अपूर्व आनन्द को फैला दिया। श्री संघ के सामने बड़े भारी समारोह के साथ पू० त० श्री छगनसागरजी महाराज ने कुमार हरिसिंह को उसी पूर्व निश्चित सुमुहुर्त में भगवती दोक्षा प्रदान कर पूज्य गणाधीश्वर श्री भगवानसागरजी महाराज के शिष्य 'श्री हरिसागरजी' नाम से उद्घाषित किये । चरित नायक के गुरु भाई गणाधीश्वर पूज्य श्री भगवानसागरजी महाराज साहब के शिष्य अध्यात्म योगी चैतन्यसागरजी म० उर्फ चिदानन्दजी महाराज महोपाध्याय श्री सुमतिसागरजी महाराज, मुनि श्री धनसागरजी महाराज, मुनि श्री तेजसागरजी महाराज, श्री त्रैलोक्यसागरजी महाराज और हमारे चरितनायक आचार्य श्री जिनहरिसागरसूरीश्वरजी महाराज हुए । आदर्श जीवन पूज्य श्री बगनसागरजी महाराज की वृद्धावस्था होने से और हमारे चरितनायक की बाल अवस्था होने से सं० १९५७ से १९६५ तक के चातुर्मास लोहावट और फलोदी ( मारवाड़) में ही हुए । इस सानुकूल संयोग में ज्ञान- तप और अवस्था से स्थिविर पद को पाये हुए पूज्य श्री छगनसागरजी महाराज ने आपको संस्कृत व प्राकृत भाषा को पढ़ाने के साथ-साथ प्रकरणों का तत्व ज्ञान और आगमों का मौलिक रहस्य भली प्रकार से समझा दिया। विद्यागुरु को परम दया और आपकी प्रोढ़ प्रज्ञा ने आपके को आदर्श और उन्नत बना दिया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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