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________________ । १२६ ] चारित्र धर्म स्वीकार करने की अनुमति प्राप्तकर सांवत्सरिक आपका समुदाय हुआ। क्षमत क्षामणा के मांगलिक पर्व के दिन गुरुजी के पास एक बार आपने स्वप्न में मनोहर वाटिका में बछड़ों आपने दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा का महोत्सव उपर्युक्त गोलछा के झुण्डसह गायों को विचरते हुए देखा जिसके फलस्वरूप परिवार ने किया। मुनिवर राजसागरजी ने प्रव्रज्या ग्रहण आपने भविष्य में साध्वी समुदाय का विस्तार होना बताया कराते हुए आपको मुनिश्री ऋद्धिसागरजी का शिष्य घोषित और आपकी यह भविष्यवाणी पूर्णरूपसे सिद्ध हुई । किया। जैनागमों के निरन्तर अध्ययन से आपके ज्ञान की वृद्धि ___ साध्वाचार को समुचित शिक्षा के अनन्तर मार्गशीर्ष हुई और जन साधारण के सुबोध के लिये आपने जीवाजीव, मास में आपको बड़ी दीक्षा भी हो गयी। अब आप जैन राशिप्रकाश (१९१० में सैलाने से प्रकाशित) भाषा कल्पसिद्धान्त के विशेष अध्ययन में संलग्न हो गये और थोड़े ही सूत्र, १०८ बोल, ६२ मार्गणायंत्र, दशक, शतक, अष्टक समय में जेनागमों में दक्षता प्राप्त कर लो। एवं कई अन्य बोल-चाल के ग्रन्थों की रचना की। आगमवाचना के समय शास्त्रोक्त साधु जोवन से अपने इस प्रकार सुविहित मार्ग का पुनरुद्धार कर धर्मप्रचार वर्तमान जीवन की तुलना करने पर शिथिलता नजर आई। करते हुए ३६ वर्ष ४ महीने १४ दिन का निर्मल संयम अतः साध्वाचार को खप होने से आपने मुनि पद्मसागरजी पालन कर सं० १९४२ के माघ वदि ४ शनिवार के प्रातः व गुणवन्तसागरजी के साथ गुरुजी से अलग होकर सं० काल फलौदी में अनशन द्वारा आप ध्यानपूर्वक स्वर्ग १९१८ सिरोही में क्रिया-उद्धार कर लिया। तदनन्तर सुवि- सिधारे । हित मार्ग का प्रचार व तप संयम से अपनी आत्मा को . आप बड़े पुण्यशाली महापुरुष थे । यद्यपि आपकी भावित करते हुए सर्वत्र विहार करने लगे। अनुक्रम से विद्यमानता में ५ साधु व १४ साध्वियों का समुदाय ही तीर्थाधिराज शत्रुजय को यात्रा करके आप फलौदी हुआ पर वह क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुआ और थोड़े समय पधारे। के अनन्तर ही साध्वियों की सं० २०० के लगभग पहुँच इधर साध्वीजी रूपधीजी की शिष्या उद्योतश्रीजी गई है। शिथिलाचार से सम्बन्ध विच्छेद कर सं० १९२२ में फलौदी बीसवीं शती के खरतरगच्छीय विद्वान ग्रन्थकार व आयो । और आपको योग्य सुविहित गुरु जानकर आपसे क्रियापात्र योगिराज चिदानन्दजी ने शिवजीराम से अलग वासक्षेप लेकर आज्ञानुवर्तिनि हो गई। सं० १९२४ में होकर पूज्य सुखसागरजी महाराज से अजमेर में उपस्थापना लक्ष्मी बाई दीक्षित होकर उनको लक्ष्मीश्रीजी के नाम से दोक्षा ग्रहण की थी। इससे उस समय आपके विशुद्ध शिष्या हो गयीं। सं० १९२५ में भगवानदास श्रावक ने चारित्र की ख्याति कितनी अधिक थो, इसका भली भाँति गुरुश्री से दीक्षा ग्रहण की। और भगवानसागरजी के नाम परिचय मिलता है। से वे प्रसिद्ध हो गये। मुनि पद्मसागरजी फलौदी पधारने के ऐसे महापुरुष जैन संघ में अधिकाधिक अवतरित हों पूर्व ही अलग हो चुके थे अतः ३ साधु ओर ३ साध्वी का · यही हार्दिक अभिलाषा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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